राजनैतिकशिक्षा

चुनाव उत्तर प्रदेश में और भूचाल बिहार में!

-उपेन्द्र प्रसाद-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे आने के बाद बिहार में भाजपा क्या करेगी, उसकी पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के 73 विधायक बन कर आए थे और जदयू के महज 43 विधायक। इस बात को भाजपा नहीं पचा पा रही है कि ज्यादा विधायक होने के बावजूद उसका मुख्यमंत्री वहां क्यों नहीं है। लेकिन वह नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाए रखने के लिए विवश है, क्योंकि वह अपने दम पर बहुमत की संख्या नहीं प्राप्त कर सकती। उसे या तो भारी संख्या में जदयू और कांग्रेस के सांसदों को तोड़ना होगा या विधानसभा का चुनाव करवाकर बहुमत हासिल करना होगा।
उत्तर प्रदेश का चुनाव बिहार की राजनीति की धड़कनें बढ़ा रहा है। इसने न केवल सत्तारूढ़ भाजपा और जदयू के बीच तनाव पैदा कर दिया है, बल्कि जदयू की आतंरिक राजनीति को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष संजय कुमार जायसवाल नीतीश सरकार पर उस तरह आक्रामक हो गए हैं, जो पहले कभी बिहार में देखा नहीं गया था। गिरिराज सिंह जैसे नेता जब कभी नीतीश और उनकी सरकार की आलोचना करते थे, तो नीतीश कुमार और उनके लोग भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व से उनकी शिकायत करते थे और प्रायः केन्द्रीय नेतृत्व गिरिराज सिंह का मुंह बंद करवा देते थे। गिरिराज सिंह के वे बयान निजी हैसियत से दिए जाते थे, क्योंकि वे किसी पार्टी पद पर नहीं थे।
संजय जायसवाल तो प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष हैं और उन्होंने एक मुद्दे पर नहीं, बल्कि कई मुद्दों पर नीतीश सरकार और उनकी पार्टी की आलोचना की। जब जदयू के अध्यक्ष ललन सिंह अशोक के मुद्दे पर अपनी राय और मांग को प्रधानमंत्री के ट्विटर एकाउंट से टैग कर रहे थे, तो भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि जदयू नेता प्रधानमंत्री के साथ ट्विटर ट्विटर का खेल बंद करें। उसके पहले वे बिहार के लिए विशेष दर्जे की मांग की नीतीश सरकार की जिद का भी विरोध कर चुके हैं।
शराबबंदी के मसले पर तो अध्यक्ष जायसवाल ने विरोध में मुख्य विरोधी दल के नेता तेजस्वी यादव को भी पीछे छोड़ दिया। उनके लोकसभा क्षेत्र में विषाक्त शराब पीने से कुछ लोगों की मौत हुई थी। जायसवाल उनके परिवारों के बीच संवेदना व्यक्त करने गए थे और परिवारों को वित्तीय सहायता भी दी थी। जदयू के नेता जायसवाल की उस दरियादिली का विरोध कर रहे थे कि इससे शराबबंदी कानून के लागू करने में दिक्कत होती है। उनके कहने का मतलब था कि शराब पीकर मरने वालों के परिवार सहानुभूति के लायक नहीं हैं। कुछ दिन बाद ही नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा में भी जहरीली शराब पीने से कुछ लोगों की मौत हुई। जायसवाल ने खुद नीतीश कुमार पर ताना मारा कि वे अब मृत लोगों के परिवारों को जेल में डाल दें।
जाति जनगणना के मसले पर भी भाजपा और जदयू में मतभेद बना हुआ है। नीतीश कुमार जाति जनगणना कराना चाहते हैं, लेकिन भाजपा करवाने नहीं दे रही है। वैसे बिहार विधानसभा के में भाजपा विधायकों ने जाति जनगणना के पक्ष में मतदान किया था और भाजपा के नेता सुशील मोदी कहते रहे हैं कि केन्द्र सरकार जाति जनगणना नहीं कराएगी और राज्य सरकार चाहे तो खुद करा ले। लेकिन भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व के इशारे पर बिहार भाजपा के नेता इसका विरोधकर कर रहे हैं।
उपरोक्त घटनाओं को देखकर कोई कह सकता है कि वह बिहार का आंतरिक संघर्ष है और उसका उत्तर प्रदेश चुनाव से क्या लेना देना? लेकिन वास्तव में इन घटनाओं का उत्तर प्रदेश चुनाव से लेना देना है। उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे आने के बाद बिहार में भाजपा क्या करेगी, उसकी पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के 73 विधायक बन कर आए थे और जदयू के महज 43 विधायक। इस बात को भाजपा नहीं पचा पा रही है कि ज्यादा विधायक होने के बावजूद उसका मुख्यमंत्री वहां क्यों नहीं है।
लेकिन वह नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाए रखने के लिए विवश है, क्योंकि वह अपने दम पर बहुमत की संख्या नहीं प्राप्त कर सकती। उसे या तो भारी संख्या में जदयू और कांग्रेस के सांसदों को तोड़ना होगा या विधानसभा का चुनाव करवाकर बहुमत हासिल करना होगा। ऑपरेशन लोटस चलाकर भी भाजपा वहां अपनी सरकार बनवाती है, तो खाली सीटों पर हुए उपचुनावों में उसे अपने उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करवाना होगा। बिहार की जमीन पर वह नीतीश के साथ के बिना चुनाव जीत सकती है, इसका आत्मविश्वास उसके पास नहीं है, इसलिए वह नहीं चाहते हुए भी भाजपा को ढोने के लिए विवश है।
पहले भाजपा नेता पश्चिम बंगाल चुनाव के नतीजों का इंतजार कर रहे थे। यदि वहां भाजपा जीतकर अपनी सरकार बना लेती, तो वह बिहार में ऑपरेशन लोटस चलाकर अपनी सरकार बना सकती थी। बंगाल के जीत के बाद उसे आत्मविश्वास होता कि बिहार में भी वह नीतीश के बिना राजद को हरा सकती है। बंगाल में तो वह हार गई और नीतीश सरकार को जीवनदान मिल गया। अब वह उत्तर प्रदेश की ओर देख रही है। यदि वहां उसे भारी जीत मिलती है, तो फिर बिहार में वह तोड़-फोड़ की राजनीति कर अपनी सरकार बनाने की सोच सकती है और बिहार में भाजपा जिस तरह से नीतीश पर आक्रामक हो रही है, वह उसकी ही पृष्ठभूमि तैयार करने का प्रयास है। शराबबंदी को मुद्दा बनाकर भाजपा नीतीश सरकार से हाथ खींच सकती है।
उत्तर प्रदेश चुनाव ने जदयू की आंतरिक राजनीति को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है। जदयू कोटे से मोदी सरकार में मंत्री बने रामचन्द्र प्रसाद सिंह (आरसीपी सिंह) को नीतीश कुमार निपटाने में लग गए हैं। आरसीपी एक पूर्व नौकरशाह हैं, जो हैं तो बिहार के, लेकिन उत्तर प्रदेश के आईएएस कैडर में थे। वे नीतीश के स्वजातीय है। बेनीप्रसाद वर्मा जब केन्द्र में मंत्री थे, तो आरसीपी उनके निजी सचिव थे। नीतीश कुमार जब केन्द्र में मंत्री थे, तो उन्होंने भी आरसीपी को अपना निजी सचिव बना रखा था। बाद में नीतीश के कहने पर आरसीपी ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया बिहार से राज्यसभा के सदस्य बन गए। नीतीश ने बाद में उन्हें जदयू का अध्यक्ष भी बना दिया। लेकिन अध्यक्ष होने का लाभ उठाते हुए आरसीपी नीतीश की इच्छा के विपरीत मोदी सरकार में मंत्री बन बैठे हैं।
यूपी चुनाव में नीतीश में आरसीपी को ही भाजपा से गठबंधन कर जदयू के लिए कुछ सीटें हासिल करने का जिम्मा दे दिया, जिसमें वे विफल रहे। अब उन्हें उत्तर प्रदेश जदयू की अभियान समिति का प्रमुख बना दिया गया है। लेकिन आरसीपी चुप हैं। वे चुनाव अभियान में हिस्सा लेते हैं, तो उन्हें योगी सरकार और भाजपा के खिलाफ बोलना पड़ेगा और नहीं हिस्सा लेते हैं, तो उन पर पार्टी अनुशासन तोड़ने का आरोप लगेगा। यानी दोनों ही हालत में आरसीपी का ही नुकसान है। जदयू की राजनीति में आरसीपी फैक्टर का इस्तेमाल भी भाजपा कर सकती है, यदि वह उत्तर प्रदेश में भारी जीत हासिल कर ले।

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