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मोदी का ‘स्वदेशी’ आह्वान

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

प्रधानमंत्री मोदी ने देशवासियों को ‘स्वदेशी का प्रचारक’ बनने का आह्वान किया है। अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी से यह आह्वान देश भर के लिए है कि सभी संकल्प लें और अपने घरों में स्वदेशी सामान ही लेकर आएं। प्रधानमंत्री मोदी को अचानक यह आह्वान क्यों करना पड़ा, जबकि संघ परिवार के लिए ‘स्वदेशी’ एक बुनियादी एजेंडा रहा है। आरएसएस का सहयोगी संगठन ‘स्वदेशी जागरण मंच’ दशकों से इस दिशा में प्रयासरत रहा है। वैश्विक अर्थव्यवस्था और कारोबार के मौजूदा दौर में कोई भी देश ‘स्वदेशी’ के भरोसे न तो आर्थिक विकास कर सकता है और न ही अस्तित्व की रक्षा कर सकता है। भारत आज एक खुली अर्थव्यवस्था वाला देश है और उदारीकरण, आर्थिक सुधारों का प्रणेता रहा है। भारत की अर्थव्यवस्था और बाजार को ‘बंद अर्थव्यवस्था’ के दौर में नहीं धकेला जा सकता। ‘स्वदेशी’ के सीधे मायने हैं कि आप विदेशी निवेश का प्रवाह बाधित कर रहे हैं। स्थिरता के माहौल को फिर से अस्थिर करना चाहते हैं। आत्मनिर्भर भारत के लिए ‘स्वदेशी’ एक जड़ स्थिति है। अमरीकी राष्ट्रपति टं्रप के 25 फीसदी टैरिफ थोपने के बाद प्रधानमंत्री की ‘स्वदेशी’ पर यह पहली सार्वजनिक प्रतिक्रिया है। ‘मेक इन इंडिया’ के प्रथम प्रोमोटर प्रधानमंत्री ही हैं। यह सिलसिला मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ माह बाद ही शुरू कर दिया गया था। दिसंबर, 2014 में उद्योग पर ‘राष्ट्रीय कार्यशाला’ के दौरान ‘स्वदेशी’ पर भी विमर्श किया गया था। बेशक आज भी विनिर्माण के क्षेत्र में इतना विकास और विस्तार नहीं हो पाया है कि वह देश के जीडीपी में 25 फीसदी का योगदान दे सके। हालांकि कोरोना वैश्विक महामारी के दौरान भारत ने 60 फीसदी टीकों की आपूर्ति जरूरतमंद देशों को की। यह टीका भारत की कंपनियों ने ही बनाया और विकसित किया है तथा उसका उत्पादन वैश्विक स्तर पर किया जा रहा है। भारत ने 102 ‘स्वदेशी वंदे भारत’ टे्रन का नेटवर्क भी खड़ा किया है।

आज भारतीय कंपनियां रक्षा उत्पादन में इतनी सक्रिय और व्यस्त हैं कि वे करीब 90 देशों को हथियारों की आपूर्ति कर रही हैं, लेकिन यह भी यथार्थ है कि हमें लड़ाकू विमान, हेलीकॉप्टर और प्रमुख वायु रक्षा प्रणाली विदेशों से ही खरीदने पड़ रहे हैं। अभी हम रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ‘दहलीज’ पर ही खड़े हैं। हमें अपनी जरूरत का खाद्य तेल अब भी विदेश से आयात करना पड़ रहा है। हम स्वदेशी तेल का ब्रांड और उत्पादन स्थापित नहीं कर पाए हैं। ‘स्वदेशी’ महज एक नारा है, व्यावहारिक नहीं है। बेशक भारत का कपड़ा क्षेत्र 14.5 करोड़ लोगों को रोजगार दे रहा है। हम अमरीका को भी वस्त्र, परिधान आदि का अच्छा-खासा निर्यात करते हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स में भारत ने दोगुनी बढ़ोतरी की है, लेकिन कारों, मोबाइल आदि में जो सेमीकंडक्टर की ‘चिप’ लगती है, भारत उसके शोध, विकास, व्यापार के लिए आज भी सिंगापुर, ताइवान जैसे छोटे देशों पर ही आश्रित है। चीन, जापान, अमरीका की तो बात मत कीजिए। उनसे हमारा मुकाबला किया ही नहीं जा सकता। दो साल पहले भारत सरकार के बजट में युवा छात्रों को प्रशिक्षित और उनके रोजगार के मद्देनजर देश की 500 बड़ी कंपनियों में ‘इंटर्नशिप’ की योजना की घोषणा की गई थी। उसकी मौजूदा स्थिति क्या है, सरकार ने यह ब्रीफ करने की कभी जरूरत ही नहीं समझी। यह सवाल बेहद अहम और संवेदनशील है कि बीते 5 सालों के दौरान करीब 20 लाख पासपोर्ट ‘सरेंडर’ क्यों किए गए? वे लोग विदेशों में गए, काम में जुटे और फिर विदेशों में ही बस गए। यह आंकड़ा ऐसा है, जो ‘स्वदेशी’ की अवधारणा और संभावनाओं को नकारता है। ‘स्वदेशी’ एक व्यापक कैनवस है, लिहाजा सभी वस्तुओं का जिक्र करना संभव नहीं है। प्रधानमंत्री ‘लोकल को वोकल’ का नारा भी देते रहे हैं। विडंबना यह है कि इतने सालों के प्रयासों के बावजूद हमारे देश में न तो हुनरमंद श्रम है, न ही शोध एवं विकास पर अपेक्षाकृत फोकस है। स्वदेशी से ही आप टं्रप टैरिफ को पराजित नहीं कर सकते।

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