युद्ध हुआ ही क्यों?
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
अब यह यक्ष-प्रश्न सामने है कि इजरायल-ईरान युद्ध क्यों हुआ था? अमरीकी राष्ट्रपति टं्रप ईरान की खामेनेई हुकूमत बदलना चाहते थे, लगातार हुंकारें भी भर रहे थे, लेकिन युद्धविराम कराते हुए और उसके बाद उनका कहना है कि सत्ता-परिवर्तन से अराजकता फैलती है, लिहाजा यह फैसला हम ईरानी अवाम पर छोड़ते हैं। क्या इस असमंजस के कारण ही युद्ध कराया गया था? अमरीका और इजरायल दोनों ही ईरान की परमाणु क्षमता नष्ट करना चाहते थे, ताकि ईरान परमाणु बम न बना सके। ईरान के परमाणु कार्यक्रमों को लेकर कई सवाल अब भी अनुत्तरित हैं। ईरान ने खुद को आईएईए (अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी) से अलग कर लिया है। अब न तो किसी निगरानी कैमरों, न नियमित रपट और न ही परमाणु ठिकानों के निरीक्षण की अनुमति ईरान आईएईए को देगा। युद्धविराम के बाद भी ईरान की तरफ से बयान दिए गए हैं कि उनका परमाणु कार्यक्रम जारी रहेगा। युद्ध में ईरान का सबसे अहम और संवेदनशील नुकसान यह हुआ है कि इजरायल की सेना ने उसके 17 परमाणु वैज्ञानिक मार दिए हैं। यह क्षतिपूर्ति बेहद मुश्किल है। सवाल है कि ईरान का लेशमात्र परमाणु कार्यक्रम अस्तित्व में है, तो अमरीका और इजरायल ने अपने लक्ष्य हासिल कैसे किए? यदि लक्ष्य अधूरे रह गए, तो फिर युद्ध क्यों लड़ा गया था? इजरायल को युद्ध के कारण 1200 करोड़ डॉलर का घाटा उठाना पड़ा। करीब 60, 000 छोटी-बड़ी कंपनियां इजरायल छोड़ कर चली गईं। उसे 1.9 अरब डॉलर का औद्योगिक नुकसान हुआ और 4.2 अरब डॉलर का बुनियादी ढांचा खंडहर हो गया। ईरान ने उसके तेल अवीव के सैन्य अड्डों, एयरबेस और दर्जनों इमारतों को तबाह कर दिया। ईरान को युद्ध के कारण 150-200 अरब डॉलर का नुकसान झेलना पड़ा। उसके 800-900 लोग मारे गए, जिनमें सेना के शीर्ष कमांडर भी शामिल थे। बेशक अमरीकी हमले में परमाणु ठिकानों में हजारों सेंट्रीफ्यूज नष्ट हो गए और सुरंगें ‘मिट्टी-मलबा’ हो गईं। ईरान की जीडीपी पर करीब 9.6 अरब डॉलर के नुकसान का अनुमान सामने आया है।
क्या इस आर्थिक तबाही के लिए ही युद्ध लड़ा गया था? युद्धविराम के बाद मध्य-पूर्व की शांति और स्थिरता बेहद जरूरी है। गाजा में अब भी घेराबंदी, हमले और हत्याएं हैं। करीब 60, 000 मौतें हो चुकी हैं, जिनमें बच्चों की संख्या भी काफी है। गाजा पर अमरीका और इजरायल कब्जा कर लेना चाहते हैं। मध्य-पूर्व और आसपास के देशों पर ही दुनिया की अर्थव्यवस्था का एक मोटा हिस्सा आश्रित है। लाखों भारतीय भी इन देशों में काम करते हैं। यदि ईरान की डांवाडोल स्थिति के कारण सीरिया, लीबिया, लेबनान, इराक आदि देशों में भी हालात नहीं सुधरते हैं, तो उससे आतंकवाद और क्षेत्रीय उग्रवाद का विस्तार होगा। उनसे अन्य खाड़ी देशों की आंतरिक सुरक्षा प्रभावित होगी। आतंकवाद की ‘काली छाया’ भारत तक भी आ सकती है। दरअसल यह एक अजीब युद्ध था और उतनी ही नाटकीयता के साथ इस पर विराम घोषित किया गया। उससे पहले कतर के अमरीकी सैन्य बेस पर ईरान ने 14 मिसाइलों से जो हमला किया, वह भी नौटंकी था, क्योंकि हमले की पूर्व सूचना दे दी गई थी, लिहाजा 13 मिसाइलें हवा में ही नष्ट कर दी गईं और एक मिसाइल किसी अन्य दिशा में जाकर नष्ट हो गई। यह हमला इसलिए किया गया, ताकि ईरान अपनी अवाम को खुलासा कर सके कि हमने अमरीकी अड्डे पर भी हमला बोल कर बदला लिया है। युद्धविराम को लेकर राष्ट्रपति टं्रप और ईरान के विरोधाभासी बयान हैं। बहरहाल अमरीका आदतन इस युद्धविराम का भी श्रेय ले रहा है। युद्धविराम स्थायी और निश्चित होना चाहिए। युद्धविराम के बावजूद दोनों देश एक-दूसरे पर हमले करें, यह बेमानी है। न युद्ध के मायने हैं और न ही युद्धविराम का महत्व है। ईरान की प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि वह गुप्त, छिपी हुई गतिविधियों के बजाय कूटनीति और संवाद से काम करे। परमाणु हथियार को आक्रमण के बजाय अवरोधक का अस्त्र बनाए और पूरी पारदर्शिता बरते। ईरान को उत्तरी कोरिया नहीं बनना चाहिए। ईरान में अपनी तरह का लोकतंत्र है, जबकि कोरिया में तानाशाही है। इजरायल भी पर्याप्त कूटनीति से काम करना सीख ले। सभी मसलों का हल हथियारों और सैन्य हमलों से संभव नहीं है। इस मसले को आपसी बातचीत से सुलझाया जा सकता है।