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नीलमणि फूकन और दामोदर मौउजो को ज्ञानपीठ पुरस्कार

-योगेश कुमार गोयल-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

पिछले दिनों वर्ष 2020 और 2021 के लिए भारतीय ज्ञानपीठ न्यास द्वारा भारतीय साहित्य के लिए दिए जाने वाले भारत के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ की घोषणा की गई।

56वां और 57वां ज्ञानपीठ पुरस्कार क्रमशः 88 वर्षीय नीलमणि फूकन जूनियर और 77 वर्षीय दामोदर मौउजो को दिया जाएगा, जिनके नाम का चयन भारतीय साहित्य में उनके उत्कृष्ट योगदान के आधार पर किया गया।

नीलमणि फूकन जूनियर प्रख्यात असमिया कवि हैं तथा दामोदर मौउजो कोंकणी उपन्यासकार हैं। दोनों ही साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता हैं तथा संबंधित क्षेत्रीय साहित्य में अपने महत्वपूर्ण योगदान के लिए जाने जाते हैं। 2020 और 2021 के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कारों को लेकर अंतिम निर्णय प्रसिद्ध कथाकार और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रतिभा राय की अध्यक्षता में हुई चयन समिति की बैठक में लिया गया।

ज्ञानपीठ पुरस्कार के चयन की प्रक्रिया काफी जटिल है, जो कई महीनों तक चलती है। किसी भी लेखक को साहित्य की आजीवन सेवा और साहित्य जगत में उसके अहम योगदान के लिए यह पुरस्कार दिया जाता है। 1961 में स्थापित यह पुरस्कार भारत का सबसे पुराना और सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार है, जो किसी भी लेखक को मरणोपरांत नहीं दिया जाता।

10 सितम्बर 1933 को असम के दरगांव में जन्मे नीलमणि फूकन असमिया भाषा में कविता की 13 पुस्तकें लिख चुके हैं। असमिया साहित्य की अन्य विधाओं पर भी उन्होंने बहुत काम किया है। असमिया साहित्य में उन्हें ऋषि तुल्य माना जाता है। असमिया साहित्य में विशेष स्थान रखने वाले नीलमणि फूकन पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कार, असम वैली अवार्ड तथा साहित्य अकादमी फैलोशिप सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किए जा चुके हैं। नीलमणि फूकन को साहित्य के प्रति उनकी आजीवन सेवाओं का सम्मान करते हुए सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान से सम्मानित करने का निर्णय लिया गया है।

उन्हें यह सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान दिए जाने की घोषणा के साथ ही असम को अब तक के ज्ञानपीठ पुरस्कारों के इतिहास में तीसरी बार यह पुरस्कार हासिल करने का सुअवसर मिला है। नीलमणि फूकन से पहले 1979 में बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य और 2000 में इंदिरा गोस्वामी को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।

नीलमणि फूकन ने 1950 के दशक की शुरुआत से ही कविताएं लिखना शुरू कर दिया था और 1961 में गुवाहाटी विश्वविद्यालय से इतिहास में मास्टर डिग्री प्राप्त प्राप्त करने के बाद 1964 में गुवाहाटी में आर्य विद्यापीठ कॉलेज में व्याख्याता के रूप में कैरियर की शुरूआत की, जहां वे 1992 में अपनी सेवानिवृत्ति तक कार्यरत रहे। प्रगतिशील सोच वाले आधुनिक कवि नीलमणि फूकन करीब सात दशकों से कविता कर्म में सक्रिय हैं, जिन्होंने असमिया कविता को नया अंदाज प्रदान किया है। आत्मकथा और 13 कविता संग्रह के अलावा आलोचना पर भी उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी उल्लेखनीय कृतियों में ‘सूर्य हेनु नामी आहे ए नोडियेदी’, ‘गुलापी जमुर लग्न’, ‘कोबिता’ इत्यादि प्रमुख रूप से शामिल हैं। उन्होंने जापान और यूरोप की कविताओं का असमिया में अनुवाद भी किया।

1981 में उन्हें उनके कविता संग्रह ‘कोबिता’ पर असमिया में साहित्य अकादमी पुरस्कार और 1997 में असम घाटी साहित्य पुरस्कार मिला था। 2002 में साहित्य अकादमी ने उन्हें अपना फैलो बनाया था, जो भारत की राष्ट्रीय पत्र अकादमी द्वारा दिया गया सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान है। भारत सरकार द्वारा 1990 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। इसके अलावा प्रतिष्ठित ब्रह्मपुत्र वैली पुरस्कार सहित उन्हें बहुत सारे सम्मान मिल चुके हैं। डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें 2019 में डी.लिट् से सम्मानित किया गया था।

1 अगस्त 1944 को दक्षिण गोवा में मजोरदा के तटीय गांव में एक गौड़ सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्मे दामोदर मौउजो कोंकणी भाषा के प्रमुख कवि, आलोचक, लघु कथाकार, उपन्यासकार और कोंकणी भाषा के विख्यात पटकथा लेखक हैं। करीब 50 वर्ष लंबे लेखन कैरियर में वे छह कहानी संग्रह, चार उपन्यास, दो आत्मकथात्मक कृतियां और बाल साहित्य को कलमबद्ध कर चुके हैं।

दामोदर मौउजो कोंकणी साहित्यिक परिदृश्य में चर्चित चेहरा हैं और उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, गोवा कला अकादमी साहित्य पुरस्कार, कोंकणी भाषा मंडल साहित्य पुरस्कारों सहित कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा जा चुका है। 2011-12 में भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा उन्हें कोंकणी साहित्य के पूर्व और उत्तर औपनिवेशिक इतिहास पर परियोजना के लिए वरिष्ठ फैलोशिप से सम्मानित किया। दामोदर मौउजो को सुनामी साइमन तथा कारमेलिन जैसे उनके चर्चित उपन्यासों के अलावा गोवा की अन्य कहानियों के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित करने का निर्णय लिया गया है।

साहित्य अकादमी की वित्त समिति के सदस्य के अलावा कार्यकारी बोर्ड, सामान्य परिषद इत्यादि में कार्य कर चुके दामोदर मौउजो की प्राथमिक शिक्षा मराठी और पुर्तगाली भाषाओं में हुई थी जबकि उनकी माध्यमिक शिक्षा अंग्रेजी में हुई। मात्र 12 वर्ष की आयु में ही उनके सिर से पिता का साया उठ गया, जिसके बाद उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ परिवार की दुकान में चाचा की मदद की। बॉम्बे यूनिवर्सिटी से उन्होंने बी.कॉम की डिग्री हासिल की और उसी दौरान उन्होंने कोंकणी में लघुकथाएं लिखना शुरू किया था, जिन्हें पाठकों ने खूब सराहा और उनमें से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद और प्रकाशन भी किया गया। 1983 में उनके उपन्यास ‘कार्मेलिन’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, 2011 में उपन्यास ‘सुनामी साइमन’ के लिए विमला वी. पाई विश्व कोंकणी साहित्य पुरस्कार सहित अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। ‘कार्मेलिन’ उपन्यास फारस की खाड़ी के देशों में काम करने वाली घरेलू नौकरानी की पीड़ा और यौन शोषण से संबंधित है, जिसका असमिया, बंगाली, मैथिली, नेपाली, गुजराती, मराठी, सिंधी, पंजाबी, तमिल, कन्नड़, हिन्दी और अंग्रेजी, 12 भाषाओं में अनुवाद किया गया। ‘सुनामी साइमन’ उपन्यास उन्होंने 1996 में तमिलनाडु के तट पर सुनामी आने के बाद लिखा था। इस उपन्यास का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया।

1971 में दामोदर मौउजो का पहला लघुकथा संग्रह ‘गैंथन’ प्रकाशित हुआ, जिसके साथ उनके लेखन की शुरुआत हुई। 1975 में उन्होंने एक स्वतंत्रता सेनानी के बेटे का बदला लेने के बारे में एक उपन्यास ‘सूद’ लिखा, जिस पर 2006 में इसी शीर्षक से एक फिल्म भी बनी। अभी तक वह 2014 में ‘सैपोन मोगी’ सहित कुछ लघु कहानी संग्रह, ‘कार्मेलिन’ सहित कुछ उपन्यास लिख चुके हैं। पांच कोंकणी फिल्मों शितू, अलीशा, सूद, ओ मारिया और एनिमी के लिए भी उन्होंने पटकथा अथवा संवाद लिखे, जिनमें से गोवा फिल्म फेस्टिवल में उन्हें अलीशा के लिए सर्वश्रेष्ठ पटकथा पुरस्कार, शितू और ओ मारिया के लिए सर्वश्रेष्ठ संवाद पुरस्कार मिला।

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