राजनैतिकशिक्षा

निजी अस्पतालों में ‘सांसों’ की कालाबाजारी !

-कौशल-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

यह मजबूरी ही है कि चिकित्सा क्षेत्र में सरकारी व्यवस्थाओं को असंतोषजनक मानते हुए व्यक्ति निजी अस्पतालों की ओर रुख करता है और जब वहां ठगा जाता है तब उसे महसूस होता है कि काश, सरकारी में ही भर्ती हो जाते।…खैर यह तो सामान्य बात हो चुकी है। अबतक तो निजी अस्पताल मोटे बिलों के कारण ही चर्चा में रहते आए हैं, लेकिन मौजूदा कोरोना दौर में निजी अस्पतालों में दलाल पनप गए हैं जो जरूरी जीवन रक्षक इंजेक्शन की कालाबाजारी कर रहे हैं। इनमें चिकित्सा के पवित्र पेशे से जुड़े लोग भी संलिप्त हैं।

सभी जानते हैं कि कोई व्यक्ति निजी अस्पताल में इसलिए भर्ती होता है क्योंकि उसे वहां अच्छी सार-संभाल का भरोसा होता है। व्यक्ति पैसे की चिंता नहीं करता, सिर्फ सार-संभाल और उपचार की सुविधाओं पर भरोसा करता है। निजी अस्पतालों की पहली शर्त ही होती है कि वहां भर्ती होने पर सारी दवाएं उसी अस्पताल की फार्मेसी से लिया जाना अनिवार्य होगा। ऐसे में जिस भी दवा की जरूरत है, निजी अस्पताल की फार्मेसी ही उपलब्ध कराती है। जो लोग भर्ती होते हैं उनके परिजनों को भी यह निश्चिंतता होती है कि निजी अस्पताल में ज्यादा दौड़ना नहीं पड़ेगा। लेकिन, पिछले दिनों कोविड के मामलों में जरूरी इंजेक्शन की पर्ची मरीजों के तीमारदारों को थमाई जाने लगी है। रेमडेसिविर से लेकर टोसिल (ज्व्ब्प्स्) (एमआरपी करीब 40 हजार रुपये) और उसके विकल्प के रूप में प्जवसप्रनउंइ का इंजेक्शन चिकित्सक पर्ची पर लिखकर परिजनों के हाथ में थमा रहे हैं। परिजनों की परेशानी यहीं से शुरू हो रही है कि एक तरफ कोई भी दवा अस्पताल की फार्मेसी से लेने का नियम है, दूसरी तरफ महंगे इंजेक्शन की पर्ची उन्हें क्यों थमाई जा रही है। जब वे पैसा देने को तैयार हैं तो व्यवस्था अस्पताल को ही करनी चाहिए। जबकि निजी अस्पताल वाले, हमारे यहां यह दवाई उपलब्ध नहीं है, कहकर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं।

बस यहीं से जिन्दगी बचाने का कालाबाजार शुरू हो रहा है। सीधा-सा प्रश्न है जो सामान्य व्यक्ति भी करेगा कि जब इतना बड़ा निजी अस्पताल इंजेक्शन की व्यवस्था नहीं कर पा रहा है तो मरीज का परिजन कहां से कर पाएगा। अधिकतर तो फार्मेसी शब्द भी नहीं जानते, सिर्फ दवाई की दुकान से ही पुकारते हैं। ऐसे में अब उन्हें किसी ‘जानकार’ की दरकार होती है जो महंगी दवाई उचित दर पर दिला दे। हालांकि कुछ ही देर में उन्हें ‘जानकार’ अस्पताल में ही उपलब्ध हो जाते हैं। पहले तो वे तथाकथित ‘जानकार’ एक दो मेडिकल डिस्ट्रीब्यूटर का पता देते हैं, लेकिन वहां से इंजेक्शन उपलब्ध हो रहा होता तो क्या अस्पताल की फार्मेसी नहीं मंगवा लेती। अब वह ‘जानकार’ अपना खेल शुरू करता है और किसी और ‘जानकार’ के नंबर देता है। दूसरी तरफ निजी अस्पताल परिजनों के सामने खुद को लाचार-बेबस साबित करने में भी कसर नहीं छोड़ता। मरता क्या न करता, अब वह दूसरा ‘जानकार’ जो भी रस्ता दिखाता है उसी पर चलना तीमारदार की मजबूरी हो जाती है।

अब 40 हजार वाले टोसिल इंजेक्शन के लिए मुंहमांगा दाम देना तीमारदार की मजबूरी हो जाती है। एक तीमारदार ने पीड़ा सिर्फ इस शर्त पर बताई कि उसका नाम कहीं नहीं बताया जाएगा क्योंकि फिर उसके बीमार परिजन के उपचार में कोताही की पूरी आशंका उसे परेशान किए रहती है। उस तीमारदार ने टोसिल इंजेक्शन एक लाख 60 हजार में खरीदा। इस बात पर विश्वास करने के लिए एक ही आधिकारिक उदाहरण काफी है कि उदयपुर में 21 अप्रैल 2021 को स्पेशल पुलिस ने डेकाॅय ऑपरेशन किया जिसमें दलालों ने रेमडेसिविर के 35 हजार रुपये वसूले। पकड़े गए दो युवकों में से एक चिकित्सक (काॅर्डियोलाॅजिस्ट) था और एक एमबीबीएस का सेकंड ईयर का स्टूडेंट, दोनों एक निजी मेडिकल काॅलेज व अस्पताल के हैं। हालांकि, अब तक यह सामने नहीं आया है कि वे रेमडेसिविर कहां से प्राप्त कर रहे थे। पुलिस यदि इस पूरे खेल की गहराई से जांच करेगी तो कोई बड़ी बात नहीं कि इसमें बड़े नाम भी सामने आएंगे। अब जब रेमडेसिविर का कालाबाजार 35 हजार का है जिसकी एमआरपी अब 2 से 4 हजार के बीच है, ऐसे में 40 हजार एमआरपी वाला इंजेक्शन काले बाजार में सवा-डेढ़ लाख की कीमत तो रख ही सकता है।

सवाल यह है कि इंजेक्शन की जरूरत ‘जानकार’ को तुरंत कैसे पता चल जाती है। इसमें निजी अस्पतालों के कतिपय कार्मिकों की भूमिका को भी टटोला जाना चाहिए। यह भी जांच का विषय है कि परिजन द्वारा लाए गए ऐसे महंगे इंजेक्शन का इंद्राज मरीज की मेडिकल रिपोर्ट में होता है या नहीं, क्या पता अंदर इंजेक्शन लगाया भी या नहीं, परिजन तो सामने होते नहीं। फिर उस इंजेक्शन की बिलिंग कहां से होती है। होती भी है या नहीं। भले ही एमआरपी का ही बिल हो, लेकिन यह तो पता चलेगा कि अमुक इंजेक्शन उपलब्ध कहां पर है। लेकिन, ऐसा शायद ही किया जाता होगा। जबकि, लाइफ सेविंग वाले इन महंगे इंजेक्शन में निर्माण से लेकर मरीज को लगाने तक की पूरी ट्रेल का लेखा-जोखा अनिवार्यतः रखने का प्रावधान है।

लगे हाथों यह भी चर्चा कर लेते हैं कि जो इंजेक्शन बाजार में उपलब्ध नहीं हैं वह उपलब्ध कहां से होता है। दरअसल, निजी अस्पताल सिर्फ शहर में ही नहीं होते, गांवों में भी तो हैं। वे भी ऐसे महंगे वाले इंजेक्शन का करीब-करीब पांच से दस का स्टाॅक तो रखते ही हैं। चूंकि, कोरोना में अधिकतर मरीज शहरी क्षेत्रों में ही कोविड की अनुमति वाले निजी अस्पतालों में भर्ती किए जा रहे हैं, ऐसे में इंजेक्शन की शाॅर्टेज शहरी क्षेत्र में हो सकती है, हालांकि उन्हें इसका इंतजाम पुख्ता करना चाहिए जो कि उनकी जिम्मेदारी है। खैर, ग्रामीण क्षेत्रों या उन निजी अस्पतालों में जहां इस तरह के गंभीर मामले भर्ती नहीं होते, वहां पड़े इंजेक्शन इसी तरह के काला बाजार का हिस्सा बन जाते हैं और अभी बन रहे हैं। एक निजी अस्पताल में दूसरे निजी अस्पताल के ‘जानकार’ घूम रहे हैं। क्या फर्क पड़ता है कि उनके यहां मरीज भर्ती नहीं हो रहे, इंजेक्शन से ही खर्चा निकल रहा है।

ऐसा नहीं है कि सरकार के पास पकड़ने का सिस्टम नहीं है। सारे निजी अस्पतालों से अचानक छापा मारकर ऐसे इंजेक्शन का बिलिंग सहित रिकाॅर्ड, मैन्यूफैक्चरर से सीएन्डएफ, डिस्ट्रीब्यूटर तक के कागजों की ट्रेल और जिस मरीज को लगाया गया है उसकी मेडिकल रिपोर्ट और उसकी बिलिंग जब्त करके सरकार जांच कर सकती है। चोर की दाढ़ी में कहीं न कहीं तो तिनका मिल ही जाएगा। बस ढूंढ़कर निकालने में ईमानदारी बरती जाए तो। साथ ही, निजी अस्पतालों की उन्हीं की फार्मेसी से दवा खरीदने की अनिवार्यता को यदि मान्यता दी जा रही है तो ऐसे इंजेक्शन की उपलब्धता भी उन्हीं की जिम्मेदारी में लाया जाए और इस जिम्मेदारी को उपभोक्ता संरक्षण कानून के अंतर्गत लाया जाए, वर्ना यहां तो चित भी अपनी और पट भी अपनी वाला खेल सामने नजर हो ही रहा है।

इन सारे मामलों में मरीज के परिजनों पर ‘मरता क्या न करता’ वाली कहावत लागू होती है, ऐसे में सरकार को डेकाॅय ऑपरेशन बढ़ाने चाहिए। अब से पहले भ्रूण हत्या रोकने के लिए सरकार ने लगातार डेकाॅय ऑपरेशन किए थे, अब इन जरूरी इंजेक्शन की कालाबाजारी रोकने के लिए डेकाॅय ऑपरेशन की जरूरत आन पड़ी है। सिर्फ पकड़ने तक ही नहीं, इसकी तह तक जांच की जानी चाहिए ताकि उन डिस्ट्रीब्यूटर्स और उन निजी अस्पतालों का भी काला चिट्ठा उजागर हो सके।

सबसे खास बात यह कि हमलोग जो सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पतालों को दोयम दर्जे का मानने लगे हैं, उनका मूल्य इसी तरह के अनुभवों के साथ समझ में आता है। आपको बता दें कि 40 हजार की कीमत वाला इंजेक्शन सरकारी अस्पतालों में सरकार मरीज को (उसी को जिसे वास्तव में इसकी जरूरत आन पड़ती है) निःशुल्क मुहैया कराती है और कराए भी हैं। ऐसे में सरकारी व्यवस्थाओं में यदि हम सहयोगी बनें, तो निजी अस्पतालों की बढ़ती मनमानी पर स्वतः लगाम लगनी शुरू हो जाएगी। उदाहरणतः उद्योगपतियों, समाजसेवियों, भामाशाहों ने सरकारों के आह्वान पर ऑक्सीजन की आपूर्ति की ओर कदम बढ़ाए तो 24 घंटे में तस्वीर बदल गई। इसी तरह उद्योगों से जुड़ी संस्थाएं उनसे जुड़े निजी अस्पतालों में नैतिक मूल्यों की स्थपाना के लिए प्रयास करें तो सुधार का दस प्रतिशत ही जीवन और मौत के काले बाजार को खत्म कर देगा।

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