राजनैतिकशिक्षा

महंगाई की रफ्तार

-सिद्धार्थ शंकर-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

खाने-पीने के सामान, ईंधन और बिजली के दाम में इजाफा होने से थोक महंगाई फरवरी में लगातार दूसरे महीने बढ़कर पिछले 27 महीने के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई। थोक मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर फरवरी में 4.17 फीसदी रही जो इस साल जनवरी में 2.03 फीसदी और पिछले साल फरवरी में 2.26 फीसदी थी। पिछले हफ्ते आए आंकड़ों के मुताबिक खुदरा महंगाई दर फरवरी में 5.03 फीसदी रही थी। खाने-पीने के सामान के थोक दाम में महंगाई पिछले महीने 3.31 फीसदी रही। साल के पहले महीने में उनका थोक दाम सालाना आधार पर 0.26 फीसदी घटा था। फरवरी में सब्जियों के दाम में 2.90 फीसदी की गिरावट आई जबकि जनवरी में उनके दाम सालाना आधार पर 20.82 फीसदी घटे थे। हालांकि, फरवरी में दलहन का दाम 10.25 फीसदी बढ़ गया जबकि फलों के दाम में 9.48 फीसदी का इजाफा हुआ। पिछले एक साल से लोगों को जिस तरह के गंभीर संकट से गुजरना पड़ रहा है, खासतौर पर आर्थिक मुश्किलों से, उसमें अब और महंगाई बर्दाश्त से बाहर है। करोड़ों परिवारों के पास काम-धंधा नहीं है और दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पाना भी मुश्किल हो रहा है। महंगाई की मार से त्रस्त मध्यवर्ग और निम्न वर्ग का बड़ा हिस्सा बिना सबसिडी वाले रसोई गैस सिलेंडरों का इस्तेमाल करता है। डीजल महंगा होने का पहला असर माल ढुलाई पर पड़ता है और इससे रोजमर्रा की जरूरतों का हर सामान महंगा होता जाता है। सामान्य स्थितियों में जरूरी चीजों की कीमतों में उतार-चढ़ाव का आम लोगों पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ता है। लेकिन जब आय के साधनों की अनिश्चितता छाई हो तो ऐसे में जरूरी उपभोग की चीजों की कीमतों में मामूली बढ़ोतरी भी नया तनाव दे जाती है। पिछले कुछ समय से पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस के मूल्यों में लगातार बढ़ोतरी की वजह से यह चिंता गहरी होती जा रही है कि अगर महंगाई इसी तरह बेलगाम रही तो कुछ समय बाद आम लोगों के सामने गुजारा करने के कितने विकल्प बचेंगे! पेट्रोलियम पदार्थों के दाम तय करने की नीति भले कुछ भी हो, लेकिन वह इतनी तर्कसंगत तो होनी ही चाहिए कि देश की आबादी का बड़ा हिस्सा उससे प्रभावित न हो। क्या यह हैरानी की बात नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम सामान्य स्तर पर बने रहने के बावजूद देश में पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ रहे हैं और सरकारें अपना खजाना भर रही हैं। तीन दिन पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पहली बार यह कहा कि केंद्र और राज्यों को मिल कर पेट्रोलियम उत्पादों पर लग रहे करों में कटौती करने के बारे में सोचना चाहिए। सच्चाई यह है कि सरकारें लोगों की मजबूरी का भरपूर फायदा उठा रही हैं। खाना-पीना कोई बंद नहीं करने वाला, यात्रा लोग करेंगे ही, जरूरत का सामान खरीदेंगे ही, ऐसे में करों की आड़ में आमजन की जेब से जितना पैसा पैसा खींचा जा सकता है, खींच लें। यह बेरहमी की पराकाष्ठा है। क्या ऐसी सरकारें ही कल्याणकारी होती हैं? पिछले करीब साल भर से महामारी की मार के चलते बाजार से लेकर रोजगार के तमाम क्षेत्रों की हालत किसी से छिपी नहीं है। हालत यह है कि लोगों की आमदनी तो घट या फिर ठहर गई है, लेकिन अमूमन हर वस्तु के मूल्य में बढ़ोतरी के साथ उनके खर्चे भी बढ़ गए हैं। महामारी के संक्रमण की रोकथाम के लिए लगाई गई पूर्णबंदी के दौरान करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी छिन गई और सब कुछ बंद रहने की वजह से आय का भी कोई जरिया नहीं रहा था। उसके बाद क्रमशः ढिलाई के साथ हालात सामान्य होने की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन अब भी यह नहीं कहा जा सकता है कि सब कुछ पहले जैसा हो गया है। सच यह है कि भारत में साधारण परिवारों में छोटे स्तर पर की जाने वाली घरेलू बचतों की प्रवृत्ति के चलते लोग कुछ समय तक अभाव का सामना कर लेते हैं। लेकिन अगर इस स्थिति में निरंतरता बनी रहे तो बहुत दिनों तक लोग खुद को नहीं संभाल सकते। सरकार को जहां महंगाई में कमी लाने के लिए तत्काल ठोस पहल करनी चाहिए, वहीं रोजगार के अवसरों में बढ़ोतरी के जरिए लोगों की क्रयशक्ति में इजाफा करने का भी इंतजाम करना चाहिए। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि महंगाई का सबसे मारक असर उसी निम्न मध्यम और कमजोर तबकों पर पड़ता है, जो देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में सबसे अहम भूमिका निभाते हैं।

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