राजनैतिकशिक्षा

सियासी हिंसा आम बात हैं

-निधि जैन-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

इस में कोई दोहराया नहीं है कि बंगाल ने हिंसा का बेहद लंबा और अलग-अलग दौर देखा है। आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में ही सियासी हिंसा की जद में सत्ता पक्ष की विपक्ष की आवाज को निर्ममता से दबाने की रणनीति थी और वाममोर्चा के उत्थान के बाद तो यह राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता इसका कारण बनी। वहीं जब 34 वर्षों के वामो शासन के अंत के बाद जब सूबे में तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनी तो सियासी वर्चस्व बरकरार रखने को लेकर खून-खराबा शुरू हो गया। बहरहाल राजनीतिक पर्यवेक्षक विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं कि राजनीतिक हिंसा के मामले में भले तमाम राजनीतिक दल बेदाग होने का दावा करें लेकिन कोई भी दूध का धुला नहीं है। 1959 में खाद्य सुरक्षा को लेकर जब आंदोलन शुरू हुआ था तो तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि ये रक्त की आहुतियां मांगेगा। खाद्य आंदोलन में 80 लोगों की जानें चली गईं थी। जिसे वामपंथियों ने कांग्रेस की विपक्ष को रौंदकर अपना वर्चस्व कायम करने की कार्रवाई करार दिया था। 1967 में सत्ता पक्ष के खिलाफ नक्सलबाड़ी से शुरू हुए सशस्त्र आंदोलन में भी सैकड़ों जानें गई थीं। 1971 में जब कांग्रेस के सिद्धार्थ शंकर रॉय मु यमंत्री बने तो बंगाल में राजनीतिक हत्याओं का और भी वीभत्स दौर शुरू हो गया था। कहा जाता है कि 1971 से 1977 तक कांग्रेस ने विपक्ष की आवाज को दबाने के लिए हिंसा को हथियार बनाया था और यही हिंसा 1977 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के पतन और माकपा की अगुआई में वाममोर्चा के उत्थान की वजह बनी परन्तु 1977 में जबर्दस्त बहुमत से सत्ता में आने के बाद वामपंथियों ने भी हिंसा का ही रास्ता अ ितयार किया और अपना सियासी वर्चस्व कायम रखने के लिए हिंसा का संगठित तरीके से उपयोग करना आर भ किया। 1977 से 2011 तक वाममोर्चा के 34 वर्षों के शासन में भी बंगाल की सियासी फिजां लहूलुहान होती रही। 1979 में तत्कालीन ज्योति बसु सरकार की पुलिस व माकपाइयों ने बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों पर निर्मम अत्याचार किए, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए। इसके बाद अप्रैल, 1982 में कोलकाता के बिजन सेतु के पास 17 आनंदमार्गियों को जिंदा जला दिया गया, जिसका आरोप माकपाइयों पर लगा दिया गया। वहीं 2000 में बीरभूम के नानूर में अल्पसं यक समुदाय के 11 कांग्रेस समर्थकों की हत्या कर दी गई। माकपाइयों के खिलाफ आवाज उठाने पर केशपुर और खेजुरी में भी कई हत्याएं हुईं। 2006-07 में नंदीग्राम और सिंगुर में भी बहुत सी हत्याएं हुईं। जो कि वामपंथी शासन के अंत और तृणमूल के सत्ता के शिखर पर पहुंचने का दौर था व 2009 में झारग्राम के लालगढ़ में माओवादी समॢथत संगठन के माकपा व पुलिस के साथ हुए संघर्ष में एक महीने के अंदर 70 से अधिक लोग मारे गए एंव 2011 में भी ममता सरकार सत्ता में आई लेकिन सियासी हिंसा और हत्याओं का दौर बदस्तूर जारी रहा। 2013 और 2018 के पंचायत चुनावों में विभिन्न राजनीतिक दलों के क्रमशः 39 और 29 लोग मारे गए। उल्लेखनीय है कि हाल के वर्षों में हुगली, उत्तर 24 परगना, बीरभूम और मुर्शिदाबाद सर्वाधिक हिंसा प्रभावित जिले रहे हैं। इन जिलों में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, इलाके पर आधिपत्य की मानसिकता चरम पर है। उत्तर 24 परगना जिले में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर भी हमला बंगाल में सियासी हिंसा के मौजूदा हालात को बयां करता है। इसी जिले में पिछले साल भाजपा नेता मनीष शुक्ला की दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। गौरतलब है कि बीरभूम जिले में तृणमूल-भाजपा में संघर्ष अब आम बात है और यही हाल अभ हुगली व मुर्शिदाबाद जिलों का भी है।

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