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जीएसटी सुधार से स्वदेशी तक : सब पाखंड ही पाखंड

-राजेंद्र शर्मा-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

बहरहाल, जीएसटी में निर्णय की जो औपचारिक व्यवस्था है, जिसमें जीएसटी परिषद के माध्यम से राज्यों को निर्णय प्रक्रिया में शामिल करने की खाना-पूर्ति ही की जाती है और उसके हिसाब से प्रधानमंत्री को ऐसी घोषणा करने कोई अधिकार ही नहीं था, जब तब तक जीएसटी परिषद विचार के बाद ऐसे निर्णय पर नहीं पहुंचती। बहरहाल, जीएसटी की व्यवस्था में राज्यों को बराबरी का भागीदारी बनाने के पाखंड का चोगा उतारते हुए, न सिर्फ प्रधानमंत्री द्वारा इकतरफा तरीके से इस साझा कर में इकतरफा बदलाव की घोषणा कर दी गयी, उसके बाद गुजरे दो-तीन हफ्तों में सीधे केंद्र सरकार के निर्देश पर, संबंधित बदलावों पर कथित रूप से विचार करने की खाना-पूर्ति कर के, अनुमोदन की मोहर भी लगा दी गयी।

नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा तथा संघ परिवार ने एक बार फिर यह साबित किया है कि वे हिटलर के प्रचारमंत्री, गोयबल्स के इस सिद्घांत के पक्के अनुयाई हैं कि सौ बार झूठ बोलो और बड़ा झूठ बोलो, तो लोगों से कुछ भी सच मनवाया जा सकता है। इस बार यह जीएसटी में कथित ”सुधार” या जीएसटी 2.0 के नाम पर किया जा रहा है। खुद प्रधानमंत्री मोदी राष्टï्र के नाम एक विशेष संबोधन करने के लिए आए, ताकि लोगों से यह मनवा सकें कि लगभग आठ साल जीएसटी के नाम पर, असमानतापूर्ण तरीके से आम लोगों के अंधाधुंध लूटे जाने के बाद, इस लूट का मामूली तरीके से कम किया जाना, अंाशिक रूप से गलती का सुधार नहीं है बल्कि कोई बहुत बड़ी सौगात है जो मोदी सरकार लोगों को दे रही है, कोई कृपा है जो यह सरकार लोगों पर कर रही है। गोयबल्स की शिक्षा चूंकि बड़ा झूठ बोलने की थी, इसे जनता के लिए एक ”बचत उत्सव” ही बताया जा रहा है, जिसमें प्रधानमंत्री के दावे के अनुसार ”सब का मुंह मीठा” होने जा रहा है। और मोदी राज में चूंकि हरेक सरकारी निर्णय को हिंदुत्ववादी रंग में रंगा जाना ही नया नियम बना दिया गया है, इस कथित ”मिठाई” को भी हिंदू त्योहारों के सीजन के साथ जोड़ दिया गया है, जिसके बांटे जाने की शुरूआत नवरात्रि से करने का विशेष ध्यान रखा गया है।

बेशक, बहुत से लोगों के मन में इस पर कई सवाल हैं कि प्रधानमंत्री को कथित ”बचत उत्सव” की घोषणा करने के लिए खुद सामने आने और राष्टï्र के नाम संबोधन का सहारा लेने की क्या जरूरत थी? ये सवाल इसके बावजूद पूछे जा रहे हैं कि यह तो सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी, अपनी सरकार की मामूली से मामूली राहत का श्रेय, सीधे खुद ही लेना बहुत जरूरी समझते हैं। जो प्रधानमंत्री, नयी ट्रेनों को झंडी दिखाकर रवाना करने तक की लाइम लाइट किसी के साथ साझा नहीं करता हो, वह कथित रूप से 2 लाख करोड़ रु. सालाना से ज्यादा की कर राहत का श्रेय बटोरने के लिए राष्टï्र को संबोधित करने में संकोच कर रहा होता, तब ही हैरानी की बात होती। लेकिन, इस मामले में तो श्रेय का दावा नहीं करने या श्रेय किसी के साथ साझा करने का भी कोई सवाल नहीं था। ठीक सवा महीना पहले, लाल किले से अपने स्वतंत्रता दिवस संबोधन में प्रधानमंत्री प्रजा को यह सौगात मिलने और नवरात्रि से ही मिलने का बाकायदा और पर्याप्त विस्तार से एलान कर चुके थे, जिसे उसके बाद सूत्रों से आयी जानकारियों के जरिए प्रस्तावित ”जीएसटी सुधार” के ब्यौरों के साथ बात आगे भी बढ़ाया जा चुका था।

बहरहाल, जीएसटी में निर्णय की जो औपचारिक व्यवस्था है, जिसमें जीएसटी परिषद के माध्यम से राज्यों को निर्णय प्रक्रिया में शामिल करने की खाना-पूर्ति ही की जाती है और उसके हिसाब से प्रधानमंत्री को ऐसी घोषणा करने कोई अधिकार ही नहीं था, जब तब तक जीएसटी परिषद विचार के बाद ऐसे निर्णय पर नहीं पहुंचती। बहरहाल, जीएसटी की व्यवस्था में राज्यों को बराबरी का भागीदारी बनाने के पाखंड का चोगा उतारते हुए, न सिर्फ प्रधानमंत्री द्वारा इकतरफा तरीके से इस साझा कर में इकतरफा बदलाव की घोषणा कर दी गयी, उसके बाद गुजरे दो-तीन हफ्तों में सीधे केंद्र सरकार के निर्देश पर, संबंधित बदलावों पर कथित रूप से विचार करने की खाना-पूर्ति कर के, अनुमोदन की मोहर भी लगा दी गयी। और यह सब कथित रूप से सर्वसम्मति से हुआ क्योंकि 2017 में थोपी गयी जीएसटी की अंधाधुंध लूट में जो भी थोड़ी-बहुत कमी की जा रही थी, उसका विरोध तो कोई राजनीतिक पार्टी कर भी कैसे सकती थी।

फिर भी 15 अगस्त की मूल घोषणा और 22 सितंबर से जीएसटी कर राहतों का लागू होना शुरू होने के बीच के करीब सवा महीने में ही, प्रधानमंत्री को दोबारा राष्टï्र को यह याद दिलाने की जरूरत पड़ गयी कि यह सौगात उन्हीं ने दी है। यह जितना अपने तीसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी की राजनीतिक, जन-समर्थन के पहलू से असुरक्षा को दिखाता है, उतना ही गोयबल्स की सीख पर उनकी बढ़ती निर्भरता को दिखाता है। यह अकारण ही नहीं है कि एक प्रकार से समूचे उद्योग जगत से इस ”जीएसटी सुधार” के लिए विज्ञापनों की भाषा में ”थैंक यू मोदी जी” का जयगान कराने के बाद, अब भाजपा के तमाम सांसदों समेत, समूची भाजपा और जहां तक हो सके एनडीए को भी, पूरे हफ्ते भर के जीएसटी-प्रचार अभियान का टास्क सौंप दिया गया है। एक प्रकार से इसी प्रचार अभियान की शुरूआत खुद प्रधानमंत्री के राष्टï्र के नाम संबोधन से हुई है।

लेकिन, जीएसटी रियायतों को प्रचार के जरिए फुलाकर, उनके वास्तविक आकार से कई गुना बड़ा करने की ये कोशिशें, खासतौर पर बाजार की पदयात्राओं के जरिए, जीएसटी की सबसे घातक मार झेलने वाले लघु तथा सूक्ष्म उद्योगों या एमएसएमई के घावों को कितना भर पाएंगी, कहना मुश्किल है। यह एक जानी-मानी सचाई है कि 2017 में बहुत ही तड़क-भड़क के साथ और वास्तव में 15 अगस्त 1947 के मध्य-रात्रि के स्वतंत्रता की घोषणा करने वाले संसद के विशेष सत्र की भोंडी नकल पर, ”एक देश, एक टैक्स” के नारे के साथ, मध्य रात्रि के संसद सत्र से घोषित जीएसटी ने व्यवस्था की, सबसे विध्वंसक मार एमएसएमई क्षेत्र पर ही पड़ी है, जो कृषि के बाद हमारे देश में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देने वाला क्षेत्र है। इस विध्वंस का इस दौर में बेरोजगारी को अभूतपूर्व ऊंचाइयों पर पहुंचाने में सबसे बड़ा योगदान रहा है।

इशारों में सरकार की ओर किए जा रहे प्रचार के विपरीत, कथित जीएसटी सुधार, एसएसएमई के कई उत्पादों की कीमतों में कुछ कमी तो जरूर कर सकते हैं, लेकिन जीएसटी द्वारा पैदा किए गए संकट से इस क्षेत्र को उबार नहीं सकते हैं। वास्तव में यह बाल काटकर मुर्दे के हल्का हो जाने की उम्मीद करने का ही मामला है। लेकिन, एमएमएमई पर घातक प्रकार, उसके लिए जीएसटी की प्रभावी दरें ज्यादा रही होने भर का मामला नहीं है। यह एक कर व्यवस्था के रूप में जीएसटी के अपनी डिजाइन में ही एमएसएमई विरोधी होने का मामला है। सभी जानते हैं और जीएसटी को यह कहकर बराबर प्रचारित भी किया जाता रहा है कि यह अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र को, औपचारिक क्षेत्र बनाने का उद्यम है। लेकिन, भारतीय अर्थव्यवस्था के दुर्भाग्य से अनौपचारिक क्षेत्र को, जो हमारी अर्थव्यवस्था का बहुत बड़ा हिस्सा है, जबर्दस्ती औपचारिक अर्थव्यवस्था में धकियाने की यह कोशिश, मर्ज के साथ मरीज को भी मारने वाली कोशिश साबित हुई है। जीएसटी की दरों में मामूली कमी से यह संकट हल होने वाला नहीं है।

मोदी राज के सारे प्रचार हंगामे के बावजूद, यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं है कि जीएसटी दरों में की गयी कमी, एक मामूली कटौती से किसी भी तरह ज्यादा नहीं है। याद रहे कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में भी, छ: महीने पहले बजट में घोषित आयकर दरों में कटौतियों को जोड़कर भी, कुल 2.5 लाख करोड़ रु. लोगों के पास बचने की घोषणा की है। याद रहे कि 2024-25 में कुल जीएसटी राजस्व 22.08 लाख करोड़ रहा था यानी आयकर रियायत को भी जोड़कर, यह रियायत कुल जीएसटी राजस्व के 10वें हिस्से के बराबर ही रहने जा रही है। याद रहे कि यह रियायत भी, प्रधानमंत्री के दावे के विपरीत सिर्फ मेहनतशों, गरीबों, मध्यग वर्ग और तथाकथित नव-मध्यम वर्ग तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि संपन्नतर वर्ग के हिस्से में भी जाएगी, जिसका इस अतिरिक्त बचत से उपभोग शायद ही बढ़ेगा और उसी अनुपात में इस बचत के खर्च किए जाने से अर्थव्यवस्था में पैदा होने वाली अतिरिक्त मांग, घटकर पैदा होगी।

इसलिए, इतनी सी रियायत के सहारे अगर मोदी सरकार अर्थव्यवस्था में नये प्राण फूंकने के दावे कर रही है, तो इसे उसकी हवा-हवाई दावों का सहारा लेने की प्रवृत्ति का ही एक और उदाहरण समझा जाना चाहिए। सचाई यह है कि ट्रंप के टैरिफ प्रहार के रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था लिए जितनी समस्या खड़ी कर दी गयी है और एच1बी वीसा की फीस मेें बेहिसाब बढ़ोतरी समेत नये-नये कदमों से ट्रंप प्रशासन जिस तरह इन समस्याओं को बढ़ाने में ही लगा हुआ है, ये रियायतें तो उसके धक्के की काट भी शायद ही कर पाएंगी। दूसरी ओर, कथित जीएसटी-सुधार के प्रचार में मोदी राज अपनी जितनी ताकत लगा रहा है, उसमें इसका इशारा भी छुपा हुआ है कि धनी तबकों पर कर बढ़ाकर, उसके बल पर मेहनतकशों के हाथों में क्रय शक्ति तथा सार्वजनिक निवेश में उल्लेखनीय बढ़ोतरी करने के जरिए, अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए कोई वास्तविक धक्का देने के किसी प्रयास की तो, मोदी सरकार से उम्मीद ही नहीं की जा सकती है।

इन हालात में और खासतौर पर ट्रच्प के टैरिफ प्रहार के सामने, अपने शासन के ग्यारहवें साल में नरेंद्र मोदी ने जो अचानक ”स्वदेशी” का मंत्रजाप शुरू कर दिया है, उसे भी कम से कम ठोकर खाकर रास्ता सुधारने के रूप में गंभीरता से नहीं लिया जा सकता है। इसके विपरीत, यह ”स्वदेशी” का मंत्रजाप, वर्तमान संकट से ध्यान बंटाने का ही स्वांग ज्यादा लगता है, जिसमें नरेंद्र मोदी सिद्घहस्त हैं। पिछले तीन-चार साल का ही अनुभव हमारे इस संशय की पुष्टिï कर देता है। पाठकों को याद होगा कि करोना संकट के बीच, जब चुनौतियां बढ़ती नजर आ रही थीं, प्रधानमंत्री मोदी ने अचानक आत्मनिर्भरता का जाप करना शुरु कर दिया था बल्कि इसके लिए 20 लाख करोड़ रु. के निवेश का भी एलान कर दिया था। लेकिन, कोरोना की पहली लहर के उतार के साथ ही आत्मनिर्भरता का जाप भी भुला दिया गया। कारोना के बाद के इन तमाम वर्षों में बीमा क्षेत्र के दरवाजे सौ फीसदी विदेशी निवेश के लिए तथा खनन क्षेत्र के दरवाजे विदेशी कंपनियों के लिए खोलने से लेकर, रक्षा क्षेत्र में खासतौर पर अमरीका से बड़ी खरीददारियां करने तक के जो भी कदम उठाए गए हैं, आत्मनिर्भरता और स्वदेशी से उल्टी दिशा में ही जाने वाले कदम है। और तो और वर्तमान संकट के बीच भी, मुश्किल से दो हफ्ते पहले प्रधानमंत्री इसका एलान कर रहे थे कि उन्हें इससे मतलब नहीं है कि पूंजी किस की है, पूंजी कैसी है, किस रंग की है, पसीना मेरे देशवासियों का लगना चाहिए! यही अगर स्वदेशी है तो, स्वदेशी की परिभाषा बदल देनी चाहिए।

 

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