उपद्रवी या किसान
-सिद्धार्थ शंकर-
-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-
दिल्ली पुलिस ने गणतंत्र दिवस पर किसान नेताओं को शांतिपूर्ण ट्रैक्टर मार्च निकालने की मंजूरी दी थी, तभी से लोगों के मन में आशंका थी कि लाखों किसानों का ट्रैक्टर मार्च शांतिपूर्ण कैसे हो सकता है? मगर बार-बार किसानों के आश्वासन और दो माह से शांतिपूर्ण चल रहे आंदोलन को देखते हुए पुलिस और सरकार किसानों (सही मायने में उपद्रवियों) के झांसे में आ गई। एक अनुमान के मुताबिक, दिल्ली के सिंघु, नांगलोई, टीकरी, गाजीपुर और लोनी बॉर्डर पर तीन से चार लाख किसान इकऋा हुए थे। ये ट्रैक्टर परेड में हिस्सा लेने या उसे सपोर्ट करने देश के अलग अलग हिस्सों से राजधानी पहुंचे। गणतंत्र दिवस का समारोह तो शांति से हो गया, लेकिन किसान बैरिकेड्स तोड़कर दिल्ली में घुसने में कामयाब रहे। सैकड़ों ट्रैक्टर तकरीबन 5-6 घंटे तक समूची दिल्ली को आतंकित करते रहे। कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग पर ज्यादातर पंजाब के किसान मैदान में उतरे हैं। आंदोलन में शामिल कई नेता पंजाब और हरियाणा की राजनीति में भी रहे हैं। जमीनी राजनीति का उनका अनुभव दशकों का है, इसलिए माना जाता था कि आंदोलन सरकार को भारी पड़ सकता है। लेकिन, दिल्ली में मंगलवार को जो कुछ हुआ, उससे आंदोलन को बड़ा धक्का पहुंचा है। जो आंदोलन अब तक सरकार पर हावी हो रहा था, उसे अब अपना बचाव करना पड़ रहा है। दिल्ली की कड़ाके की ठंड में आंदोलन चला रहे किसानों के प्रति आमजन की भी सहानुभूति थी। मगर अब नजारा बदल चुका हैै। लाल किले पर जो कुछ हुआ, उसकी किसान नेताओं ने भले ही कड़ी निंदा की है, पर आंदोलन में दरार सामने आ गई है। इस घटना से यह भी स्पष्ट हो गया कि जो किसान दिल्ली में घुस आए थे, उनका इरादा दिल्ली में डेरा डालकर एक लंबा आंदोलन चलाने का था। हालांकि जब वे सेंट्रल दिल्ली में आईटीओ से आगे न बढ़ पाए तो लाल किले पर हंगामा मचाया। दिल्ली पुलिस के एक अफसर के अनुसार, पाबंदी के बावजूद दिल्ली में किसानों का ट्रैक्टरों के साथ घुस आना पूर्व नियोजित था। पंजाब से ट्रैक्टर लेकर आए हुए किसानों ने पुलिस को कई जगह पर मात दी। कुछ किसानों ने ट्रैक्टर ऐसे खतरनाक ढंग से चलाए कि आतंक का माहौल बन गया। सरकार विरोधी आवाज भी ऐसी अराजकता को सपोर्ट नहीं कर सकती है। शायद इसलिए बड़ी मेहनत से खड़े हुए इस आंदोलन को नुकसान होते देख कई नेता यह आरोप लगाने लगे कि लाल किले में हुई घटना एक षड्यंत्र है। दरअसल, पिछले दो दिनों से कुछ किसान नेता कहने लगे थे कि पुलिस के तय रास्ते पर वे नहीं चलेंगे। सोमवार शाम को लोनी बॉर्डर पर ट्रैक्टर मार्च के रिहर्सल के दौरान भी हंगामा हुआ था। पुलिस को तभी अंदाजा हो गया था कि किसानों की तैयारी आगे बढ़ चुकी है। गाजीपुर बॉर्डर से कई किसान ट्रैक्टरों के साथ देश की संसद, सुप्रीम कोर्ट, राजपथ और राष्ट्रपति भवन के काफी करीब पहुंच गए थे। लगभग तीन घंटे दिल्ली के अतिविशिष्ट इलाके में आज भय और अंदेशा का माहौल छाया रहा। गांव-गांव से आए किसान मानो अपनी ताकत और गुस्से का प्रदर्शन कर रहे थे। आंदोलन के नाम पर दिल्ली में जो कुछ हुआ, उसके परिणाम लंबे समय तक दिख सकते हैं। पुलिस अब सख्ती बरतेगी। उधर, उत्तर प्रदेश और हरियाणा के काफी किसान इस आंदोलन से अलग हो सकते हैं।
कहा जा रहा है कि पुलिस ने राजधानी के बॉर्डर पर बैरिकेड्स के पार पिछले दो महीने से जारी उनके शांतिपूर्ण प्रदर्शन को देखते हुए यह इजाजत दी होगी। किसानों का अच्छा व्यवहार भी इस फैसले की वजह रहा होगा। अगर किसान इस समाज का हिस्सा हैं, तो उनसे कानून को मानने वाले दूसरे नागरिकों की तरह ही अच्छा व्यवहार करने की उम्मीद की जाती है। अगर यह कानून के दायरे में किया जा रहा विरोध प्रदर्शन था, तो उन्हें अपनी ताकत दिखाने के लिए गैरकानूनी कदम नहीं उठाने चाहिए थे। कुछ लोगों का कहना है कि यह किसानों का दबा हुआ गुस्सा था जो इस तरह बाहर आया। अब जबकि किसान नेता हिंसा के पीछे बाहरी ताकतों का हाथ होने की बात कहते हुए खुद को पूरे मामले से अलग कर रहे हैं। ऐसे में एक मिनट के लिए अगर हम मान लें कि उनकी बात पूरी तरह सही है, तो इसे साबित करना भी उनकी ही जिम्मेदारी है। क्योंकि, वीडियो फुटेज कुछ और ही कहानी कह रहे हैं। अगर उनकी शांतिपूर्ण रैली को उपद्रवियों ने हाईजैक कर लिया था, तो उन्हें सामने लाना भी किसान नेताओं की ही जिम्मेदारी है। सही मायने में लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। इस घटनाक्रम ने मौसम की मार के बीच पिछले दो महीने से किए गए किसानों के संघर्ष पर बदनुमा दाग लगाया है। आम आदमी के बीच उनकी छवि साफ तौर पर खराब हुई है।