टैरिफ संकट : करने होंगे तात्कालिक उपाय
-विकेश कुमार बडोला-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
अंतत: भारत-अमेरिका की आर्थिक शत्रुता बढ़ाने वाला बड़ा निर्णय ट्रंप ने ले ही लिया। गत 28 अगस्त से अमेरिका भेजे जाने वाले भारतीय उत्पादों पर कुल पचास प्रतिशत शुल्क लगने लगेगा। भारत में तो नहीं किंतु अमेरिका में बढ़े हुए शुल्क के शासकीय निर्णय पर पक्ष-विपक्ष के राजनेता तथा उनसे संबद्ध विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों के दो समूह बन गए हैं। एक समूह भारत पर अतिरिक्त शुल्क लगाने को अनुचित मान रहा है, तो दूसरा ट्रंप के निर्णय का समर्थन कर रहा है। अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट सकारात्मक हैं। वे आशान्वित हैं कि अंतत: अमेरिका व भारत के मध्य अर्थव्यवस्था की अनुकूल स्थितियां बनेंगी।
उनके अनुसार एकपक्षीय टैरिफ व कुछ अनावश्यक वक्तव्यों के बाद भी दोनों देशों के मध्य वार्ता की राह बंद नहीं हुई है। कुछ अन्य प्रभावशाली पदाधिकारी भी बारंबार कह रहे हैं कि यदि भारत पर पच्चीस प्रतिशत अतिरिक्त टैरिफ रूस से तेल खरीद के कारण लगा है तो फिर चीन पर बढ़ा हुआ टैरिफ क्यों नहीं लगाया गया, क्योंकि वो तो भारत की तुलना में रूस से अधिक तेल आयात कर रहा है। इस आपत्ति के आलोक में विचार करें तो यही ज्ञात होता है कि ट्रंप जो हैं वे मोदी के साथ अपनी व्यक्तिगत मित्रता के कारण यही चाहते थे कि भारत के साथ प्रस्तावित अमेरिका के अनेक क्षेत्रों, विशेषकर व्यापार से संबंधित समझौतों पर भारत वैश्विक भूराजनीतिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्यों पर विचार किए बिना ही सहमति के साथ हस्ताक्षर कर दे। भारत ने ऐसा नहीं किया और अमेरिकी टैरिफ के चक्रव्यूह में फंस गया। भारत से अमेरिका को निर्यात होने वाली वस्तुओं में आभूषण, वस्त्र, हस्तशिल्प, खाद्य पदार्थ इत्यादि सम्मिलित हैं। इन वस्तुओं के उत्पादन में नियुक्त औद्योगिक एवं व्यापारिक प्रतिष्ठानों के सम्मुख आगामी समय चुनौतियों से पूर्ण होगा।
जब तक भारतीय शासन द्वारा अमेरिका को विभिन्न वस्तुएं निर्यात करने के माध्यम से वैश्विक बाजार में टिके हुए निर्यातकों को बड़े व नवोन्मेषी राहत पैकेज नहीं मिल जाते अथवा अमेरिका के साथ वार्ता करके अतिरिक्त शुल्क के निर्णय को निष्क्रिय नहीं कर दिया जाता, तब तक इनके स्तर पर देशी-विदेशी व्यापार मंद होता रहेगा। हालांकि भारतीय वाणिज्य विभाग निर्यातकों की सहायता के लिए विविध आयामी व्यापारनीति पर कार्य कर रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक के स्तर पर निर्यातकों हेतु नकदी की चुनौतियों से निपटने के उपायों पर विचार हो रहा है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मूलत: अमेरिका में वस्तुएं भेजने वाले निर्यातकों को शीघ्रातिशीघ्र सहायता उपाय लागू करने का भरोसा दिया है। शासन पहले से चली आ रही योजनाओं को पुनर्जीवित करने व निर्यात संवद्र्धन अभियान को भी शीघ्र लागू करने की तैयारी कर रहा है। प्रधानमंत्री जापान, चीन की यात्रा पर हैं। वे इस समयावधि में प्रमुख रूप से भारत के उन आर्थिक-व्यापारिक क्षेत्रों के लिए ही नए विकल्प ढूंढने को प्राथमिकता देंगे, जिन्हें अमेरिकी टैरिफ के बाद मंदी का सामना करना पड़ेगा। टैरिफ संकट से निकलने का प्रत्यक्ष एवं आसान उपाय तो यही है कि भारत टैरिफ की चिंताओं व समस्याओं के संबंध में अमेरिका से निरंतर वार्ता करता रहे।
अमेरिकी वित्त मंत्री सहित भारत हितैषी कुछ नेताओं द्वारा इस संदर्भ में सकारात्मक वक्तव्य भी प्रस्तुत किए जा रहे हैं, जो कहीं न कहीं गुप्त रूप से यही इंगित कर रहे हैं कि ट्रंप के राष्ट्रपति पद से हटते ही भारत-अमेरिका के मध्य टैरिफ संकट पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। टैरिफ व्यूह से निकलने के इन तात्कालिक उपायों, आशाओं एवं कार्यों के अतिरिक्त भारत को अपनी भावी आर्थिक स्थितियों को अमेरिका या किसी एक बड़े देश पर आश्रित करने की तुलना में आत्मनिर्भरता तथा स्वदेशी के अर्थबल द्वारा साधना होगा। स्वदेशी अर्थव्यवस्था को कार्यबल देकर भारत टैरिफ की समस्याओं से तात्कालिक मुक्ति पा सकता है। पारंपरिक रूप से मांग व उपभोग आधारित रही अपनी अर्थव्यवस्था को भारत एफएमसीजी यानी फास्ट मूविंग कंज्यूमर प्रोडक्ट के उत्पादन से लेकर अंतिम उपभोग के चरण तक आर्थिक वृद्धि का आधार बना सकता है। इसके लिए भारतीय बाजारों को वस्तु के कम मूल्य से लेकर गुणवत्ता तक का तो ध्यान रखना ही होगा, साथ ही साथ बाजारीकरण के पुराने ढर्रे और ऑनलाइन आपूर्ति श्रृंखला का सामंजस्य भी बनाए रखना होगा। विभिन्न क्षेत्रों में बड़े विनिर्माणन उद्योगों में निर्मित होने वाले यांत्रिक उत्पादों में लगने वाले छोटे व सहायक उपकरणों हेतु मेक इन इंडिया अभियान को स्टार्टअप से जोडक़र परिणामोन्मुखी व लाभोन्मुखी बनाना होगा।
अमेरिका को निर्यात होने वाले हीरे-जवाहरात, वस्त्र, शिल्पकारी की वस्तुओं, डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों व अन्य उत्पाद सामग्रियों के लिए मांग आधारित स्वदेशी व विदेशी, दोनों बाजारों में मूल्य को प्रतिक्षण प्रतिस्पद्र्धी व लचीला रखना होगा। मूल्यह्रास की प्रतिस्पद्र्धा में बने रहकर होने वाली आर्थिक हानि को वस्तुओं व सामग्रियों की मांग में पुनरावृत्ति करके कम करना होगा। इस हेतु वस्तु व सामग्री की गुणवत्ता, आकर्षण एवं मांग होने पर त्वरित आपूर्ति की व्यवसाय-संस्कृति विकसित करनी होगी। अमेरिका को छोड़ जिन अन्य देशों के साथ भारत का आयात-निर्यात दहाई के प्रतिशत में है, उनके हाई परचेजिंग उपभोक्ताओं में भारतीय उत्पादों व सेवाओं के प्रति विशेष रुचि उत्पन्न करने की दिशा में कार्य करना होगा। इन देशों में चीन, यूएई, जर्मनी, हांगकांग, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, नाइजीरिया, बेल्जियम, जापान, इराक, ईरान, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका सम्मिलित हैं। अभी ब्रिक्स के दो सदस्य देशों रूस और ब्राजील को भी भारत के निर्यात खरीददार के रूप में स्थापित करने की चुनौती सामने है। विश्व में जनसंख्या में शीर्ष के तीन देशों में तो अमेरिका, चीन समेत स्वयं भारत प्रथम स्थान पर है। शीर्ष दस बड़े आबादी वाले देशों में से पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ भारत के व्यापार संबंध रसातल में पहुंचे हुए हैं। इनके अतिरिक्त ब्राजील, नाइजीरिया, रूस व यूथोपिया के अधिक जनसंख्या वाले देशों तक भी भारतीय एफएमसीजी उत्पादों एवं सेवाओं का प्रसार करना होगा। इन देशों की बड़ी क्रयशक्ति वाले ग्राहकों की रुचि के अनुसार स्वदेशी निर्माण, विनिर्माण व निर्यातकों का यथोचित पूल बनाना होगा।
इन तात्कालिक उपायों के अतिरिक्त अनेक दीर्घकालिक उपाय भी हैं, जो भविष्य में भारत की अर्थव्यवस्था को हर संकट, समस्या एवं चुनौती से सुरक्षित रख सकते हैं। जैसे कि प्राकृतिक खेती एवं कृषि। इस क्षेत्र में नवोन्नत प्रगति करके इससे संबंधित खाद्य उत्पादों के सबसे बड़े विक्रेता, निर्यातक व लाभार्जक के रूप में भारत की स्थापना अवश्य हो सकती है, क्योंकि दुनिया में बढ़ते स्वास्थ्य संकट, कृत्रिम व रसायनमिश्रित खाद्यान्नों की प्रचुरता से विश्व के लोग दु:खी हैं। वे किसी भांति, कहीं से भी प्राकृतिक खाद्यान्न चाहते हैं। अत: इस क्षेत्र में असीम संभावनाएं हैं। इसी प्रकार भारत के पास आयुर्वेद, योग व प्राकृतिक चिकित्सा की विलक्षण योग्यता है। इन उपायों के बल पर दुनिया का हरेक व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ करना चाहता है। भविष्य में इस क्षेत्र को भी भारत के अर्थतंत्र का बड़ा आधारस्तंभ बनाया जा सकता है। विश्व में प्राकृतिक आपदाओं की पुनरावृत्ति से स्वयं भारत भी बुरी तरह पीडि़त है। ग्रीष्म, शीत एवं वर्षाकालीन प्राकृतिक आपदाओं एवं जलवायु असंतुलन के निवारक उपायों के लिए भारत को अपने अंतरिक्ष विज्ञान में भी नवोन्नति करती रहनी होगी। मेक इन इंडिया तथा स्टार्टअप योजनाओं को इस हेतु भी समर्पित करना होगा। परिणाम में प्राकृतिक आपदाओं के निरोधन हेतु जो रक्षा-सुरक्षा उपाय भारत द्वारा खोजे जाएंगे अथवा जो निरोधक यंत्र, मशीनें, उपकरण एवं प्रौद्योगिकी विकसित होगी, निश्चित रूप में उनकी मांग विदेशों में ही अधिक होगी।