निराशाजनक ओलंपिक के बाद
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
पेरिस ओलंपिक, 2024 में भारत का सफर समाप्त हुआ। कुछ उपलब्धियां रहीं, कुछ ‘पहली बार’ के रिकॉर्ड बने, हॉकी ने तो कमाल कर दिया, लेकिन कुल मिला कर सफर ‘निराशाजनक’ रहा। एक बार फिर भारत शीर्ष 70 देशों की सूची में नहीं है। भारत एक रजत पदक और 5 कांस्य पदकों के साथ 71वें स्थान पर रहा, जबकि टोक्यो ओलंपिक में हमारा स्थान 48वां था। 1996 के अटलांटा और 2000 के सिडनी ओलंपिक खेलों में भी भारत मात्र 1-1 कांस्य पदक के साथ 71वें स्थान पर था। यह 1992 के बाद पहला मौका है, जब भारत पाकिस्तान (62वां स्थान) से पीछे रहा है। उस साल भारत खाली झोली लौटा था, जबकि पाकिस्तान एक कांस्य पदक हासिल करने में कामयाब रहा था। विश्व जनसंख्या में भारत की 18 फीसदी हिस्सेदारी है, लेकिन ओलंपिक पदक की उपलब्धि मात्र 0.5 फीसदी है।
अर्थात इतनी-सी आबादी ही ओलंपिक पदक जीतने लायक है। यह आंकड़ा निराशाजनक ही नहीं, राष्ट्रीय अपमान भी है। ओलंपिक पदक का सीधा संबंध आबादी से नहीं है, क्योंकि एक लाख जनसंख्या वाले देश ने भी स्वर्ण पदक जीता है और 144 करोड़ की सर्वाधिक आबादी वाले भारत को एक-एक पदक के लिए तरसना पड़ता है। पेरिस ओलंपिक में भारत के 117 खिलाडिय़ों ने भाग लिया, लेकिन 16 खेलों में ही अपना हुनर दिखा पाए। उसमें भी मु_ी भर सूरमाओं को छोड़ कर शेष फिसड्डी ही साबित हुए। चूंकि उन खिलाडिय़ों ने पेरिस ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया था, लिहाजा हम उनकी प्रशंसा में तालियां बजाएं, हम ऐसा नहीं कर सकते। इन खिलाडिय़ों पर सरकारी कोष से 470 करोड़ रुपए खर्च किए गए। यह करदाता का ही पैसा था। खिलाडिय़ों को प्रशिक्षण दिलाया गया, विदेशी कोच रखे गए, विदेश में खेलने के अवसर दिए गए और देश में सभी सुविधाएं मुहैया कराई गईं। इतना सब कुछ महज प्रतिनिधित्व के लिए नहीं किया गया। दिक्कत यह है कि हमारे अधिकतर खिलाड़ी ‘चैम्पियन’ की मानसिकता से ही नहीं खेले, लिहाजा 6 मुकाबलों में 8 खिलाड़ी चौथे स्थान पर रहे।
न जाने उन्हें चौथे स्थान से इतना लगाव क्यों हो गया है? इस जमात में मीराबाई चानू (भारोत्तोलन), लक्ष्य सेन (बैडमिंटन), अर्जुन बाबुता (शूटिंग), मनु भाकर (शूटिंग), धीरज बोम्मदेवरा-अंकिता भक्त (तीरंदाजी), माहेश्वरी चौहान-अनंतजीत सिंह (स्कीट मिश्रित) आदि खिलाड़ी ऐसे ही हैं, जो जीत की दहलीज से वापस मुड़े हैं। लक्य्न ने कांस्य पदक मुकाबले में पहला सैट जीत लिया था, लेकिन उसके बाद उन्होंने खेल में आत्मसमर्पण ही कर दिया। मीराबाई मात्र एक किलोग्राम से पिछड़ गईं, जबकि वह टोक्यो ओलंपिक की रजत पदक विजेता रही हैं। स्कीट जोड़ी भी चीन से मात्र एक अंक पिछड़ गई। मनु भाकर ने तो 10 मीटर पिस्टल में दो कांस्य पदक जीत कर इतिहास रचा है। वह 25 मीटर पिस्टल में, आखिरी पलों में, निशाना चूक गईं। यह कुछ हद तक क्षम्य है। बैडमिंटन में तो भारत को खाली हाथ लौटना पड़ा है। सात्विक-चिराग की विश्व विख्यात जोड़ी ने क्वार्टर फाइनल में ही घुटने टेक दिए। उनसे स्वर्ण पदक की अपेक्षाएं की जा रही थीं।
भारत के खिलाडिय़ों ने औसतन 29 करोड़ लोगों पर एक ओलंपिक पदक जीता है और वह भी स्वर्ण पदक नहीं, लिहाजा पेरिस ओलंपिक के दौरान एक बार भी भारत के राष्ट्रगान की धुन नहीं बजी। सिर्फ स्वर्ण पदक जीतने पर ही राष्ट्रगान की धुन बजाई जाती है। बहरहाल अब ओलंपिक खेलों का पटाक्षेप हो चुका है, लिहाजा भारतीय खेल प्राधिकरण, खेल मंत्रालय और अन्य हितधारकों को व्यापक विमर्श करना चाहिए कि लगातार प्रयासों के बावजूद भारत खेलों में पिछड़ा क्यों है? यह सरोकार प्रख्यात बैडमिंटन खिलाड़ी और अब कोच प्रकाश पादुकोण ने भी उठाया है। खासकर लक्ष्य से सवाल किए हैं कि जीत के लिए उन्हें क्या चाहिए? एक आखिरी उम्मीद विनेश फोगाट के संदर्भ में है कि खेल पंचाट उनके पक्ष में फैसला दे और भारतीय महिला पहलवान को रजत पदक का सम्मान मिल सके, लेकिन फिर भी भारतीय खिलाडिय़ों का सकल प्रदर्शन ‘निराशाजनक’ ही आंका जाएगा। फिलहाल हम कोई निष्कर्ष नहीं देंगे। यह उनका विशेषाधिकार है कि वे बैठें और चिंतन-मनन करें कि खेल और भारत के लिए क्या बेहतर हो सकता है। जरूरत इस बात की भी है कि देश भर में खेल ढांचे के लिए धनराशि का पर्याप्त आबंटन हो।
इस आबंटन को तर्कसंगत भी बनाना होगा। जिन प्रदेशों के खिलाड़ी कुछ अच्छा करने में सक्षम हैं, उन्हीं प्रदेशों को ज्यादा धनराशि का आबंटन होना चाहिए। खेल ढांचे के लिए धनराशि का आबंटन राजनीतिक आधार पर नहीं होना चाहिए। खेल संघों की कमान भी खेल से जुड़े लोगों को ही सौंपी जानी चाहिए। जिन प्रदेशों के खिलाडिय़ों ने इस बार अच्छा प्रदर्शन किया है, उन प्रदेशों को ज्यादा प्रोत्साहन मिलना चाहिए।