चरित्र की राजनीति पर उठते सवाल
-राकेश कुमार वर्मा-
-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-
कोरोनाकाल में बेरोजगारी और पलायन से उत्पन्न अर्थसंकट के बीच जहां मानवीयता के विविध आयाम देखने को मिले वहीं इसे कई लोगों ने अनुचित आय का साधन बनाया। इस संबंध में हाल ही में आई संसदीय समिति की रिपोर्ट में निजी स्वास्थ्य संस्थाओं को फायदा पहुंचाने पर सहमति व्यक्त की गई। इससे पहले इस संबंध में दायर एक जनहित याचिका पर प्रदेश के उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता को अदालत का समय बर्बाद करने का हवाला देते हुए उसे दण्डित करने का फरमान सुनाया था। आज सत्ता में गौरवशाली प्राचीन परंपरा की भावनाओं को संरक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध जनप्रतिनिधि सत्तासीन है लेकिन राजनीति का हश्र यथावत है, यह दीगर बात है कि राजनीति का स्वरूप बदल गया है। संस्कारों की बुनियाद पर परिष्कृत व्यक्तित्व का पथिक सत्ता के गलियारे से गुजरते ही मदमस्त हाथी के समान अपने ही बनाये मापदण्डों को रौंदता हुआ निकलता है, उसी प्रकार लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ कहे जाने वाले पत्रकारिता का गुण-धर्म भी अवसरवाद में बदल गया है। राष्ट्रवाद और राजनीति के चिंतक गोविन्दाचार्य की दृष्टि में ऐसे हाथी को नियंत्रित करने के लिए समाज का अंकुश जरूरी है। शायद इसलिए उन्होंनें अटलजी को मुखौटा कहा था। शास्त्रों से राजनीति में आते-आते धर्म की व्याख्या बदल गई है। आज देश की नीतियां विकास के अंतिम छोर पर खड़े जन के हित को ध्यान में रखकर भले ही बनाई जा रही है लेकिन जब तक सत्ता स्वयं को बचाने के लिए अपनों के हितों का तुष्टिकरण करती रहेगी । महात्मा गांधी और दीनदयाल उपाध्याय के रामराज्य की अवधारणा को अवसरवादी नजरिये से देखा जाने लगा है। सत्तासुख के लिए जहां करोड़ों के घोटाले में आरोपी भ्रष्ट नेता को सम्मानित किया जाता है,़ वहीं 86 ग्राम गांजा रखने के आरोप में गंभीर अपराध घोषित कर किसी कलाकार को जेल भेजा जा सकता ह़े। इतना ही नहीं बल्कि आधारकार्ड के बाद अब सोशल मीडिया पर नई निजता नीति से वाट्सएप लागू कर लोगों के मूलभूत अधिकारों को प्रभावित करने का प्रयास किया जा रहा है। इसके तहत उपभोक्ताओं को सभी निजी जानकारी फेसबुक के साथ साझा करने पर सहमति देना अनिवार्य होगी। शर्त नहीं मानने पर उपभोक्ता का खाता बंद कर दिया जायेगा । वैसे भी सोशल मीडिया के दुरूपयोग ने भीड़ हिंसा, फेक न्यूज जैसी खबरों के चलन से जनहित के मुद्दों से लोगों को दूर कर दिया है।
मौजूदा राजनीति में अपराधिक पृष्ठभूमि के लोगो का प्रवेश एक ऐसा नासूर बन गया है जिसका इलाज दूर-दूर तक नजर नहीं आता । इस मुद्दे पर कई वर्षों से चल रही बहस के बावजूद अपराधियों का राजनीति और सरकार में बढ़ती पैठ पर राजनीतिक विश्लेषक जनता को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं क्योंकि आपराधिक प्रवृत्ति वाला व्यक्ति इन्हीं के वोट से चुनाव जीतकर सत्तासीन होता है। दरअसल जनता के समक्ष कई बार विचाराधारा और मुददों के आधार दुविधा का बड़ा करण होती है क्योंकि यदि वह मुददों के आधार पर सरकार हटाना या बनाना चाहती है तो वे उन स्थितियों में क्या करे जब उस पार्टी में कुशल नेतृत्व का अभाव हो। वहीं विचाराधारा आधारित स्थिति में ऐसे ही किसी उम्मीद्वार को वोट देना मजबूरी बन गई हो जो अक्षम हो । यह बात अलग है कि चुनाव जीतने या हारने पर भी लोक कल्याण से जुड़े मुद्दों को अपेक्षतया सशक्त तरीके से उठाना चाहिये ताकि सत्ताधारी दल को उस दिशा में सोचने के लिए बाध्य होना पड़े।
गत तीन वर्षों में महाराष्ट्र सहित विभिन्न राज्यों में आये चुनाव परिणाम के बाद वहां परस्पर विरोधी विचारधारा की सत्तासीन पार्टियों ने मतदाताओं के विश्वास को तोड़ा है। इस प्रसंग में चुनाव लड़ने और जीतने वाले नेताओं की पृष्ठभूमि का विश्लेषण कर कई संस्थायें इस परिणाम पर पहुंची हैं कि समूची प्रवत्ति का राजनीति और जनता के हितो पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। अदालतों ने भी अपने स्तर पर ऐसे लोगों पर लगाम लगाने की कोशिश की है । बावजूद इसके आज भी अमूमन हर विधानसभा और संसदीय क्षेत्र के आम चुनावों के बाद चुने गए जनप्रतिनिधियों की पृष्ठभूमि से औसतन निराशा हाथ लगती है। बिहार के प्ररिपेक्ष्य में हाल ही में आये एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक कुल 243 सदस्यों वाली विधानसभा क्षेत्र के लिए निर्वाचित सदस्यों में से 142 आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं । इनमें से नब्बे यानि चालीस फीसदी सदस्यों पर हत्या, हत्या के प्रयास, सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने, अपहरण, और महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे संगीन मामले दर्ज हैं । सत्तर विधायकों पर आरोप तय किए जा चुके हैं। ऐसे में राजनिति को दागियों से मुक्त करने की उम्मीद कोरी कल्पना प्रतीत होती है। ज्यादातर पार्टियों ने जिस तरह आपराधिक छवि के लोगों को अपना टिकट दिया है उससे स्प्ष्ट है कि उपरी तौर पर राजनीति के अपराधियों के दबंगई पर विरोध जताने वाले नेता और पार्टियां वास्तव में कितना उनके विरूद्ध हैं। सभी दल अपनी सुविधा के मुताबिक ऐसे लोगों को उम्मीदवार बनाती है जो राजनिति के अपराधीकरण के लिए जिम्मेदार होते हैं। समस्या तब शुरू होती है जब इस प्रकार सत्तासीन नेताओं के जनहित से जुड़े कामकाज से लेकर अन्य गतिविधियों में ऐसे जनप्रतिनिधियों की पृष्ठभूमि राजनीति को दागदार करती है। जनता के पैसों को किस तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ाया जाता है इसकी बानगी हाल ही में मुरादाबाद के श्मशान घाट में हुई 25 निर्दोषों की मौत से देखा जा सकता है। अफसोस है कि आजादी के 70 वर्ष के बाद भी परिवर्तित सरकारें इस दिशा में कोई पुख्ता पैमाना तय नहीं कर पाई है। अन्यथा प्रत्यक्षतः ऐसे मामलों में दोषी हत्यारों समेत अप्रत्यक्ष रूप से शामिल भ्रष्ट इंजीनियर और ठेकेदारों को भी ऐसा दण्ड दिया जाता जो दूसरों के लिए सबक बनता।
अर्थव्यवस्था, गरीबी और कर निर्धारण पर यूपीए-नीति सरकार का विरोध जिन जयप्रकाश, लोहिया, अटल विचारधारा के अनुगामियों ने किया था आज उनकी ही सरकार के कार्यकाल में विकास के कई मानकों पर भारत को बांग्लादेश जैसे गरीब देशों से बदतर स्थिति में ला दिया है। एक आरटीआई के तहत मिली जानकारी के मुताबिक मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह चैहान की नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने अपने कार्यकाल मे विधायकों के वेतन भत्तों पर एक सौ उन्चास करोड़ रुपये खर्च किये। इसका एक अहम पहलू यह है कि विधायकों के वेतन के मुकाबले उनके भत्तों पर साढ़े तीन गुना से अधिक राशि का भुगतान किया गया, जबकि पोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे मूलभूत मुद्दे धन अभाव की दलील पर प्रभावित हुए हैं। रखरखाव पर होने वाले व्यय के कारण राज्य सरकार को उन्नीस हजार से ज्यादा स्कूलों को बंद करने का फैसला लेना पड़ता है वहीं सरकारी अस्पतालों की बदहाली के पीछे धन की कमी को बड़ा कारण बताया जाता है। सवाल यह है कि संकटकाल के बावजूद अगर विधायकों पर खर्च करने में सरकार को कोई संकोच नहीं होता तो शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुयादी जरूरतों के मामले में धन का अभाव जैसे तर्क कहां तक न्यायसंगत हैं?
चुनाव खर्च में पारदर्शिता की अनिवार्यता लंबे समय से महसूस की जाती रही है। दरअसल चुनावों में धनबल का प्रदर्शन अब खुले आम होने लगा है। शराब, साड़ी, गहने, नगदी, बर्तन आदि बांटने का चलन सा हो गया है। क्योंकि यह गुप्त तरीके से होता है अतएव आयोग उन खर्चों को चुनावी खर्च में जोड़ पाने में असमर्थ रहे हैं। वैसे भी दागी उम्मीद्वारों की तरह देश में बाहुबलियों का वर्चस्व रहा है जिससे उनके लिए संविधान से अलग विशेष न्याय की व्यवस्था रही है। जब इस तरह से खर्च कर जनप्रतिनिधि सदन में पहुंचता है तो उसका संव्यवहार परिवर्तन स्वभाविक है, चाहे वह लोकहित में सदन में पूछे जाने वाले सवाल ही क्यों न हों? ऐसे में भी निर्वाचन आयोग ने सांसदों और विधायकों के लिए चुनाव खर्च दस फीसदी बढ़ा दिया है। अर्थात्् अब विधानसभा उम्मीद्वार 28 लाख की जगह 30 लाख 80 हजार तथा लोकसभा प्रत्याशी 70 लाख की जगह 77 लाख रुपये खर्च कर सकेंगे। चुनाव आयोग और मतदाता के साथ ही राजनीतिक दलों को ऐसी स्थितियों मे तात्कालिक लाभ के मोह से मुक्त होकर समाजहित व राजनीति की दीर्घकालीन तस्वीर के बारे में सोचना चाहिये।
कोरोना काल में जब जनता पर संक्रमण नियंत्रण के लिए सोशल डिस्टेंशिंग की अनिवार्यता लागू की गई हो तो ऐसे में माननीयों के सत्कार पर और भ्रमण पर होने वाले व्यय भी समाप्त होने चाहिये। महामारी के इस दौर में बदलते परिप्रेक्ष्य में नेताओं को देशभक्ति से जुड़कर सोचना चाहिये। बेहतर होगा यदि बिना वेतन और अन्य खर्च लिए बिना निस्वार्थ भाव से जनसेवा का वास्तविक पहचान बनकर शुचिता की एक ऐसी मिसाल पेश करें जिससे प्रत्येक प्रत्येक नागरिक का तंत्र में विश्वास कायम रहे।