राजनैतिकशिक्षा

सिंधिया के खिलाफ बन गया यह चुनाव

-शकील अख्तर-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

लोग पूछते हैं पांचों राज्यों में कांग्रेस सबसे ज्यादा सीटें कहां जीतेगी? मतलब कांग्रेस की जीत की संभावना सब जगह है लेकिन लोग इसमें से सबसे अच्छी जीत जानना चाहते हैं। मुश्किल सवाल है! लेकिन अब राहुल को मुश्किल सवाल हल करने में मजा आने लगा है इसलिए वे हर जगह मध्य प्रदेश को सबसे ऊपर रख रहे हैं। कह रहे हैं 150।

रविवार को पहले नवरात्रि से कांग्रेस ने टिकटों की घोषणा करना शुरू कर दी। पहली लिस्ट मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के टिकटों की निकाली है। मध्य प्रदेश की आधी से ज्यादा सीटों के उम्मीदवार घोषित कर दिए। 230 में से 144। बिना गुटबाजी के केवल जीत सकने की संभावना वाले उम्मीदवार। मध्य प्रदेश में पिछले 20 सालों में यह पहला मौका है जब कांग्रेस में कोई गुटबाजी नहीं है। नहीं तो 2003 के बाद हर विधानसभा चुनाव कांग्रेस खुद को ही हराती रही है। मध्यप्रदेश में यह मजाक खूब किया जाता रहा है कि जनता तो कांग्रेस को जिताना चाहती है मगर कांग्रेसी भी पक्के हैं अड़ जाते हैं कि नहीं जीतेंगे!

पिछले 2018 के चुनाव में भारी गुटबाजी थी। ज्योतिरादियत्य सिंधिया सीईसी (केन्द्रीय चुनाव समिति) की बैठकों में किसी का लिहाज नहीं करते थे। परिवार के विशेष कृपापात्र थे इसलिए सोनिया और राहुल जो उस समय कांग्रेस अध्यक्ष थे के सामने कमलनाथ और दिग्विजय से उलझ जाते थे। अपने सबसे ज्यादा टिकट करवाए और फिर उनको लेकर भाजपा में चले गए। अब कांग्रेस से वह समस्या खत्म हो गई है। हमेशा के लिए तो नहीं कह सकते। सिंधिया कब वापस आ जाएं इसका भरोसा नहीं है। फिलहाल तो राहुल ने कहा है कि नहीं लेंगे। मगर जैसा कि अभी पुरानी संसद के केन्द्रीय कक्ष में सोनिया गांधी के पास आकर बैठ गए थे तो ऐसे वे कभी भी सोनिया गांधी से माफी मांगकर उनका मन पिघला सकते हैं।

खैर वह बाद की बात है अभी तो कांग्रेस के लिए राहत की बात यह है कि राज्य के दोनों वरिष्ठ नेता कमलनाथ और दिग्विजय एक साथ हैं। राज्य में कोई गुट नहीं है। जबकि इसके विपरीत मध्य प्रदेश भाजपा में पहली बार इतनी भयंकर गुटबाजी देखी जा रही है। सबसे मेहनती और लोकप्रिय भी शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री होते हुए भी किनारे धकेला जा रहा है। मैसेज साफ है कि अगर भाजपा जीत भी गई तो शिवराज इस बार मुख्ययमंत्री नहीं बनेंगे। और इस दीवार पर लिखे सत्य ने भाजपा के नेताओं की 20 साल से दबी हसरतों को फिर से उभार दिया है। कैलाश विजयवर्गीय, गोपाल भार्गव तो खुलेआम खुद को मुख्यमंत्री का दावेदार बताने लगे हैं। लेकिन जो चुप हैं वे केन्दीय मंत्री नरेन्द्र तोमर, ज्योतिरादित्य सिंधिया भी अपनी संभावनाएं देखने लगे हैं।

मजेदार यह है कि केन्द्रीय नेतृत्व को भी इससे कोई परेशानी नहीं है। वह गुटबाजी को रोकने की कोई कोशिश नहीं कर रही है। सीधा संकेत दे रही है कि चुनाव खुद मोदी जी लड़ रहे हैं। बाकी सब सामान्य केंडिडेट या नेता हैं। केन्द्रीय मंत्रियों और सांसदों को चुनाव लड़ाकर भाजपा यही संदेश दे रही है कि शिवराज की सरकार जीत के काबिल नहीं है इसलिए बाहरी फौज उतारना पड़ी है।

शिवराज भी थोड़ी चुनौती देने की मुद्रा में आ गए हैं। करीब 18 साल से मुख्यमंत्री हैं। बहुत दबते हैं मगर एक सीमा होती है जब आदमी का स्वाभिमान बाहर आ जाता है। चुनाव की घोषणा के साथ ही शिवराज राज्य छोड़कर गंगा तट पर चले गए। वहां फोटो शूट करवाया। हाथ में नोटबुक लेकर हिसाब किताब लिखने का। अब किसका हिसाब लिख रहे हैं यह तो पता नहीं मगर कैमरा फेस मोदी जी की तरह ही बहुत कान्फिडेंस से किया।

अब शायद बीजेपी में पार्टी विथ डिफरेंस का मतलब यह हो गया है कि अलग-अलग कोणों से कौन अपने फोटो और वीडियो ज्यादा बेहतर बनवाता है। फोटो विथ डिफरेंस! मामा डिफरेंट रोल में आने लगे हैं। इतना साहस कि पूछ रहे हैं कि मुझे मुख्यमंत्री रहना चाहिए या नहीं। साथ ही ऐसा सवाल प्रधानमंत्री मोदी के लिए भी पूछकर और ज्यादा दुस्साहस दिखा रहे हैं। कह रहे हैं कि मोदी जी को फिर प्रधानमंत्री बनना चाहिए कि नहीं?

यह अपनी सीमाओं से बाहर जाकर सवाल पूछना है। भाजपा में इतना साहस किस का है जो मोदी बनेंगे या नहीं सोच भी सकता है। आज की तारीख में जो सोचना है वह मोदी जी को ही सोचना है। किसी नेता की तो बात छोड़िये पार्टी या संघ में भी इतनी ताकत नहीं बची है कि वह मोदी जी के बारे में कोई फैसला कर पाए। फैसला खुद मोदी जी ही करेंगे। ऐसे में शिवराज सिंह चौहान का यह दुस्साहस ही कहा जाएगा कि वे पूछ रहे हैं कि मोदी जी को बनाना चाहिए या नहीं!

नहीं कहने का अधिकार तो किसी के पास नहीं है। लेकिन शिवराज अप्रत्यक्ष रूप से मोदी जी को भी चुनौती दे रहे हैं। इसलिए मध्य प्रदेश का चुनाव अब बहुत दिलचस्प हो गया है। बीजेपी की आन्तरिक फूट और कांग्रेस की एकता इस चुनाव के अहम मुद्दे हैं। बाकी सिद्धांत, नीतियां, घोषणाएं अलग बात है। कांग्रेस ने बेहिचक भाजपा से आए हुए नेताओं को टिकट दे दिए।

सबसे महत्वपूर्ण तो दतिया में राज्य के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा के खिलाफ भाजपा से आए अवधेश नायक को टिकट देना रहा। नरोत्तम दतिया से तीन चुनाव लगातार जीत चुके हैं। इससे पहले वे डबरा जिला ग्वालियर से लड़ते थे। मगर वह सीट रिजर्व होने के बाद 2008 से दतिया से लड़ रहे हैं। यहां कांग्रेस से उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं था। मगर इस बार दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ने संघ से आए नेता अवधेश नायक को उनके मुकाबले उतारकर चुनाव दिलचस्प बना दिया है। नरोत्तम पिछला चुनाव कम वोटों से जीते थे। ऐसे ही कुछ और सीटों से भी कांग्रेस ने भाजपा से आए नेताओं को टिकट दिया है। मतलब साफ है जीत ही प्रमुख है। लंबे अरसे के बाद कांग्रेस ऐसा सोच रही है।

दरअसल इस चुनाव में कांग्रेस के मन में एक बात और है। ज्योतिरादित्य सिंधिया को सबक सिखाने की भावना। आम तौर पर कांग्रेस में ऐसा होता नहीं है। लेकिन सिंधिया के विश्वासघात से जिस तरह यहां कांग्रेस सरकार गई है वह कांग्रेसी तो कांग्रेसी जनता भी नहीं भूली है। ग्वालियर चंबल संभाग जिसे सिंधिया अपना घर कहते हैं वहां इसे विश्वासघात जैसा किताबी लफ्ज़ नहीं कहा जा रहा। सीधा गद्दारी बोला जा रहा है। इसलिए ज्योतिरादित्य खुद चुनाव लड़ने से डर रहे हैं। भाजपा ने तीन केन्द्रीय मंत्रियों को चुनाव मैदान में उतार दिया है। जिसमें ग्वालियर चंबल संभाग से ही आने वाले नरेन्द्र सिंह तोमर भी हैं। ऐसे में सिंधिया का चुनाव लड़ने से बचना मुश्किल ही लग रहा है। उधर कांग्रेस के नेता उन्हें लगतार चुनाव लड़ने की चुनौती दे रहे हैं। विधानसभा में विपक्ष के नेता डॉ. गोविन्द सिंह ने उन्हें अपने खिलाफ लहार जिला भिंड, ग्वालियर चंबल इलाके से ही लड़ने की चुनौती दी है।

सिंधिया बहुत असमंजस में हैं। खुद को चुनाव लड़ने से बचाने की कोशिश के साथ ही उन्हें अपने साथ भाजपा में आए लोगों को टिकट दिलाने का भी बड़ा काम करना है। भाजपा अभी तक 136 उम्मीवार घोषित कर चुकी है। मगर ग्वालियर चंबल संभाग में सिंधिया समर्थक चार मंत्रियों और एक विधायक को अभी तक टिकट नहीं मिला है।

सिंधिया के लिए केवल कांग्रेस ही समस्या नहीं है भाजपा के नेता भी उन्हें निपटाने में उसी ताकत से लगे हैं। पुराने नेता अपनी सीटें सिंधिया के लोगों के लिए छोड़ने को तैयार नहीं है। सिंधिया के लिए दोई दीन से गए वाली हालत हो गई है। न हलवा मिल रहा है न मांडे!

 

 

 

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