राजनैतिकशिक्षा

बंगाल में रक्तपात क्यों?

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

पश्चिम बंगाल की रक्तरंजित संस्कृति किसकी देन है? क्या भारत के क्रांतिकारी, सभ्य, संभ्रांत बंगाल की सांस्कृतिक विरासत मार-पीट, खूंरेजी और बर्बर हत्याओं की हो सकती है? चुनाव तो संविधान और लोकतंत्र का अंतरंग हिस्सा हैं, तो फिर पंचायत चुनावों से पहले बंगाल के कई आदरणीय इलाकों में ल_बाज, बमबाज, पत्थरबाज और कातिल नौजवानों की भीड़ कहां से आई है और उन्हें कौन संरक्षण दे रहा है? क्या बंगाल में मताधिकार भी सिर्फ ‘किताबी’ रह गया है? क्या सियासत और सत्ता के मायने हिंसा और हत्याएं ही हैं? मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खुद हिंसा की शिकार रही हैं और वह पीड़ा, प्रहार झेलकर बीते 12 सालों से राज्य की मुख्यमंत्री हैं, तो उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता राज्य को सरेआम रक्तरंजित कैसे कर सकते हैं? औसतन 25-30 राजनीतिक हत्याएं हर साल की जाती हैं, यह राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का खुलासा है। ये आंकड़े ज्यादा भी हो सकते हैं। इस खूनी खेल में भाजपा, कांग्रेस और वामदल भी शामिल हैं। बंगाल के चुनावों में और रोजमर्रा के जीवन में हिंसा और हत्याओं की विरासत वाममोर्चा की है। उसने राज्य पर 34 लंबे साल तक शासन किया है। गली-कूचे साक्षी हैं कि वामपंथियों ने कत्लेआम के जरिए किस तरह हुकूमत चलाई थी! आज ममता और तृणमूल की दोहरी जिम्मेदारी इसलिए है, क्योंकि सत्ता उनके हाथों में है और अहिंसक राजनीति का वायदा भी उन्हीं का था। बंगाल में बदलाव लाने के बजाय ममता ने भी ‘अपराधीकरण की राजनीति’ को बढ़ावा दिया है। प्रश्रय दिया है।

राज्य की पुलिस ममता सरकार के अधीन कार्यरत है, लेकिन जहां टकराव होते हैं, लहूलुहान किया जाता है, बम बनाकर फोड़े जाते हैं, वहां पुलिस मूकदर्शक रहती है अथवा मुंह घुमा लेती है! इससे यथार्थ छिप नहीं सकता। यकीनन यह विडंबना और लानत है। ममता देश भर में लोकतंत्र और संघवाद की पैरोकार बनी रहती हैं। दीदी ही बता सकती हैं कि मुर्शिदाबाद, बीरभूम, पूर्वी मिदनापुर, पूर्वी बर्दवान, कूचबिहार, नॉर्थ-साउथ 24 परगना आदि इलाकों में बम कहां से आते हैं? विभिन्न समूहों में हिंसक टकराव और रक्तपात क्यों होते रहे हैं? क्या पंचायत चुनाव के लिए ऐसा माहौल और मार-काट भी ‘लोकतांत्रिक’ है? 2018 के पंचायत चुनावों में 20,000 से अधिक उम्मीदवार निर्विरोध जीते दिखाए गए थे। उनमें 80 फीसदी से ज्यादा तृणमूल या उसके समर्थित प्रत्याशी थे। सर्वोच्च अदालत ने ऐसे लोकतंत्र, चुनाव और कथित जनादेश पर गंभीर टिप्पणी करते हुए उसे ‘जनादेश का मजाक’ करार दिया था। सिर्फ पंचायत ही नहीं, विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भी बंगाल लहूलुहान होता रहा है। इन चुनावी हिंसाओं में जो नागरिक मारे जा चुके हैं, क्या ममता बनर्जी उनका हिसाब-किताब देंगी? उन हत्याओं की जवाबदेही किसकी है? पंचायत तो हमारे लोकतंत्र की बुनियाद है। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री-काल में पंचायती राज कानून के लिए संविधान में दो विशेष संशोधन संसद ने पारित किए थे।

बंगाल की हिंसा और हत्याएं क्या उन्हें खारिज नहीं कर रही हैं? यदि पंचायत चुनाव भी रक्तरंजित होंगे, तो फिर निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव की कल्पना ही फिजूल है। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप किया है। बंगाल के संवेदनशील इलाकों में केंद्रीय सुरक्षा बल तैनात किए गए हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय रपटें तलब करता रहा है। निर्वाचित सांसद और नेता प्रतिपक्ष राज्य के गवर्नर को पत्र लिखते हैं, लेकिन मुख्यमंत्री किसी की परवाह तक नहीं करती। आखिर समाधान क्या है? वामदलों ने अपने कालखंड में नक्सलवादियों को प्रश्रय और पनाह दी थी। अब दीदी नई किस्म की हत्यारी फौज तैयार कर रही है। बेशक इस हम्माम में अन्य राजनीतिक दल भी नंगे हैं, लेकिन कानून-व्यवस्था किसका दायित्व है? यदि सब कुछ निरंकुश है, तो सीमापार से जो घुसपैठ जारी है, उसे निर्बाध रूप से आने दिया जाए और चुनावी हिंसा को क्या सांप्रदायिक टकराव में परिणत होने दिया जाए।

 

 

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