राजनैतिकशिक्षा

विभाजन को लेकर हल्ला

-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

भारत को लेकर बाबा साहिब अंबेडकर की एक टिप्पणी ग़ौर करने लायक है। वह कहते हैं भारत दुनिया में ऐसा देश है जिसकी सीमाएं प्राकृतिक हैं। सरसरी तौर पर पूछा जा सकता है कि सब देशों की सीमा प्रकृति ही बनाती है। लेकिन असल में ऐसा नहीं है। यूरोप में प्रत्येक विश्व युद्ध के बाद नए-पुराने देश बनते-बिगड़ते रहे हैं। बिना विश्व युद्ध के भी नए देश बनते रहे हैं। विश्व युद्धों से पहले यूगोस्लाविया और चैकोसलावाकिया नए देश बने। लेकिन कुछ साल बाद चैक और स्लोवाक दो देश बन गए। यूगोस्लाविया से तो तीन देश बन गए। अफ्रीका में भी ऐसा होता रहता है। जिन देशों की सीमाएं अप्राकृतिक हों तो उन देशों में लड़ाई भी होती रहती है। सचमुच न भी हो, शाब्दिक तो रुकती नहीं। लेकिन हिंदुस्तान को अंबेडकर प्राकृतिक सीमाओं वाला देश मानते हैं। भारत का एक हिस्सा जिस दिन 14 अगस्त 1947 से स्वयं को पाकिस्तान कहलवाने लगा, उसी दिन से भारत के सप्त सिंधु क्षेत्र यानी पश्चिमोत्तर भारत की सीमा मैन मेड हो गई और लड़ाई झगड़ा भी शुरू हो गया। लेकिन आज 75 साल बाद भी यह झगड़ा बदस्तूर चल रहा है कि इस विभाजन के लिए दोषी कौन है? जो लोग इस कठिन प्रश्न से बचना चाहते हैं, उनका कहना है कि अब विभाजन की त्रासदी को भूल कर इस बात को याद करो कि देश को आजादी किसने दिलाई। लेकिन कांग्रेस की मंशा यह नहीं है कि आजादी किसने दिलाई, इस पर माथापच्ची करने की जरूरत नहीं है। किसने दिलाई, इसका उत्तर भी कांग्रेस ने ख़ुद दे दिया है।

अब तो उनका केवल इतना ही कहना है कि समस्त देशवासी मिलकर गाएं कि बिन खड्ग बिन ढाल आजादी कांग्रेस ने दिलवाई है। पिछले सात आठ दशकों से कृतज्ञ लोग समवेत स्वर में गा भी रहे हैं। लेकिन बीच में कभी-कभी कंकड़ आ जाता है तो लोग बाग़ मुंह खोलते हैं और सवाल पूछ लेते हैं। देश का सामान्य कांग्रेसी तो इसका बुरा नहीं मानता लेकिन कांग्रेस के नाम पर जो बीस पच्चीस वरिष्ठ व अति वरिष्ठ का समूह राज परिवार के इर्द-गिर्द एकत्रित हो गया है, उसको कोफ़्त होती है। आजादी के दिनों में दो सचमुच के गांधी हुआ करते थे। एक अपने काठियावाड़ वाले और दूसरे खैबर पख्तूनख्वा वाले खान अब्दुल गफ्फार जिन्हें देश सीमांत गांधी या पश्तून गांधी कहा करता था। जब 1947 में कांग्रेस ने सर्वसम्मति से भारत के विभाजन में प्रस्ताव पारित किया तो ये दोनों गांधी उस बैठक में मौजूद थे। विभाजन का प्रस्ताव आने पर दोनों गांधियों ने इसका विरोध किया। लेकिन कांग्रेस ने इनके विरोध की ओर ध्यान नहीं दिया। काठियावाड़ वाले गांधी तो कांग्रेस के सदस्य नहीं थे। लेकिन अन्य कांग्रेस वालों ने उनसे सलाह मांगी तो उन्होंने कहा कि यदि आप कांग्रेस में हैं तो अनुशासन का पालन करो। मुझ पर तो यह सलाह लागू नहीं होती, क्योंकि मैं कांग्रेस का सदस्य ही नहीं हूं।

अब कुछ दिनों के बाद मिलने वाली सत्ता को सामने देख कर कोई कांग्रेस के अनुशासन से मुक्त होकर गांधी के रास्ते पर कैसे चल सकता था? कांग्रेस ने विभाजन के पक्ष में प्रस्ताव पारित कर दिया। इस पर पश्तून गांधी ने चीख़ कर कहा था कि आपने हमें भेडिय़ों के आगे फेंक दिया है। उसकी बात भी ठीक थी। उसी के कहने पर कुछ दिन पहले पठानों ने जो शत-प्रतिशत मुसलमान थे, विभाजन के विरोध में वोट दिया था। लेकिन पश्तून गांधी के गुरु काठियावाड़ वाले गांधी विवश थे। कुछ कर नहीं सकते थे। कालांतर में जब उनसे भारत के इतिहास के इस सर्वाधिक मोड़ पर उनकी इस आपत्तिजनक विवशता पर पूछा गया तो उनके कथनों का सार मात्र इतना ही था कि जब मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो मेरी सेना भाग निकली थी। लोगों में ग़ुस्सा तो था ही। क्या वे दूसरी सेना तैयार नहीं कर सकते थे? उसका उत्तर भी उनके बाद के कथनों से यही निकलता था कि उम्र के जिस मोड़ पर मैं पहुंच गया था, वहां नई सेना खड़ी करना संभव ही नहीं था। लेकिन काठियावाड़ वाले गांधी की सेना के सेनापति क्यों और किसके कहने पर भाग गए थे? जो लोग उस समय के वायसराय लार्ड माऊंटबेटन की जीवनी को लेकर निरंतर खोज ख़बर रखते हैं और अभी भी कभी कभी पुराने दस्तावेज खंगालते रहते हैं, उनके अनुसार लार्ड माऊंटबेटन ने भारत आने पर सबसे पहले जवाहर लाल नेहरू को ही साधा। और वे सध भी गए।

क्यों सध गए, इसका उत्तर तलाशने की बजाय ‘बिन खड्ग बिन ढाल’ को स्वर संगीत देने वाले आज भी इस प्रश्न को उठाने वालों पर ही भडक़ उठते हैं। वैसे नेहरू भी जानते थे कि इतिहास में यह प्रश्न तो उठेगा ही। इसलिए उन्होंने उन दिनों स्वयं इसका उत्तर देकर स्वयं को स्वयं ही अपराधमुक्त करने का प्रयास किया था। उनका स्पष्टीकरण था कि विभाजन तो रुक सकता था लेकिन उम्र के जिस मोड़ पर हम पहुंच चुके थे, वहां कोई भी अब और जेल जाने के लिए तैयार नहीं था। कांग्रेस के लोग तो इस स्पष्टीकरण से अभिभूत हो गए और उन्होंने नेहरू को फूलमालाओं से लाद दिया, लेकिन इतिहास के विद्यार्थी अभी भी नेहरू और माऊंटबेटन परिवार की आपसी खतोखतावत में से इस प्रश्न का उत्तर तलाशते रहते हैं। इससे अल्बर्ट पिंटो को ग़ुस्सा आता है। राज परिवार को इन पर ही सबसे ज्यादा ग़ुस्सा आता है। नेहरू तो उस आयु में जेल जाने की क़ीमत पर भारत को अखंड रखने को तैयार नहीं हुए, लेकिन नेहरू की इस जिद की क़ीमत काठियावाड़ वाले गांधी को अपने प्राण देकर चुकानी पड़ी और पश्तून गांधी को भारत के अखंड न रहने के कारण अपनी शेष उम्र का अधिकांश हिस्सा जेल में ही काटना पड़ा। आज उसी कांग्रेस के राजपरिवार को न तो इस सारे इतिहास को जानने की जरूरत है और न ही नैतिक दृष्टि से उनका दायित्व है। उनके लिए यह देखना ही जरूरी है कि इस इतिहास का आज इक्कीसवीं शताब्दी में कोई राजनीतिक लाभ मिल सकता है, क्योंकि उनके हाथों से सत्ता मुट्ठी में से रेत की तरह फिसलती जा रही है।

इसके लिए शायद उनको भारत का इतिहास पढ़ाने वाले कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने पक्का कर दिया है कि देश की आजादी के अन्य महानायकों को छोटा करो। इसी के चलते राज परिवार की चर्चा में विनायक दामोदर सावरकर आ गए हैं। इसलिए राज परिवार के झरोखों से अजीबोगऱीब आवाज़ें आनी शुरू हो गई हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू तो बार-बार जेल में गए, सावरकर तो ब्रिटिश सरकार को ‘यूजऱ मोस्ट ओबिडिएन्ट’ की चिट्ठी लिखा करते थे। अब भला राज परिवार को कौन बताए कि नानी जेल और अंडमान निकोबार के काला पानी में क्या अंतर है। बाक़ी रही चिट्ठीयों की बात, जांच कर लेनी चाहिए जब नेहरू माऊंटबेटन परिवार को चिट्ठी लिखते थे तो क्या अंत में ‘यूअर मोस्ट रैवोल्यूशनरी’ लिखा करते थे।

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