राजनैतिकशिक्षा

कानून के नाम पर जनता के मौलिक अधिकारों का हनन

-सनत जैन-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

सरकार अपना काम कर रही है। किसी को तकलीफ है तो वह कानूनी कार्रवाई करे। सरकार और उसके अधिकारी किसी को भी किसी भी आरोप में बंद कर देंगे। घर पर बुलडोजर चला देंगे, जांच नहीं करेंगे। सरकार का विरोध करने पर देशद्रोह और गंभीर अपराधों में मामले दर्ज हो जाएंगे। महीनों-सालों जेलों में बंद रखा जाएगा। दोषी गिरफ्तार व्यक्ति जेल में रहकर अपने आप को निर्दोष साबित करे। यह गिरफ्तार व्यक्ति की काबिलियत या सक्षमता होगी कि वह न्यायालय से कितने साल में जमानत और कितने साल में न्याय ले पाता है। जब तक उसे जमानत या न्याय मिलेगा। हो सकता है वह जवानी से बुढ़ापे की ओर बढ़ जाए। उसका परिवार रोजी-रोजगार और उसकी इज्जत समाप्त हो जाए। तब तक सरकार अपना काम करेगी। कानून अपना काम करेगा। निरपराध इसी तरह पिसता रहेगा।

भारतीय संविधान में नागरिकों के लिए मौलिक अधिकारों का वर्णन किया है। जिसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वोच्च है। कानून के नाम पर सबसे ज्यादा मजाक इसी अधिकार का उड़ाया जा रहा है। अंग्रेजों की बनाई हुई सीआरपीसी में भी 90 दिन के अंदर चालान पेश करने की बाध्यता जांच अधिकारी के ऊपर थी। आज भी है। लेकिन अब तो वर्षों चालान पेश नहीं होते हैं। पहले गिरफ्तारी होती है, फिर जांच होती है, फिर मामला दर्ज होता है। विशेष न्यायालय, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट मौलिक अधिकारों के विपरीत बने हुए कानूनों की पुष्टि करके संविधान की मूल भावना को दरकिनार करते हुए आम नागरिकों को स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित कर रहे हैं। जिस संविधान की दुहाई देते हैं, वह कहां तक सुरक्षित है। यह सभी के लिए सोचने की बात है। सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है, संविधान ने न्यायपालिका को सर्वोच्च अधिकार दिए हैं। संविधान और मौलिक अधिकारों के संरक्षण की जवाबदारी न्यायपालिका की है। लेकिन जब न्यायपालिका सरकार की खींची गई लक्ष्मण रेखा के अंदर रहते हुए सरकार के अनुरूप फैसला करने लग जाए। तो यह लोकतंत्र की व्यवस्था में न्यायालयीन कार्यवाही एक मुखौटा ही माना जाना चाहिए।

पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह से संसद और विधानसभाओं में हो हल्ले के बीच कानून बनाए जा रहे हैं। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जब नागरिक अपने अधिकारों और गलत कानूनों से प्रताड़ित होकर विचारण के लिए न्यायपालिका की शरण में जाता है। तो वहां पर भी सरकार को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में विशेष संरक्षण मिलता हैं। उनके हिसाब से सुनवाई की तारीखें तय होती हैं। मामलों को लंबे समय तक लंबित रखा जाता है। यहां तक कि अब तो निर्णय भी सरकार के अनुकूल आने लगे हैं। पिछले कुछ वर्षों से सरकार न्यायपालिका के कंधे पर जवाबदेही डालकर फैसले कराने लगी है, यह स्थिति आश्चर्यजनक है। सत्ता में बैठे हुए नेता जब यह कहते हैं कि सरकार कार्रवाई कर रही है।

यदि आप निर्दोष हैं, तो कोर्ट से जब सिद्ध हो जाएगा तब हम आपको निर्दोष मान लेंगे। न्यायालयों में दशकों तक फैसले नहीं होते हैं। जांच एजेंसियों द्वारा यदि दुर्भावना वश प्रताड़ित करने की कार्यवाही की गई है। यदि बिना सबूत मामला दर्ज हुआ है। आरोपियों को कई महीने और कई सालों तक जेलों में बंद रखा गया है ऐसे मामलों में संबंधित अधिकारियों की जवाबदेही तय ना करने से, सरकार और कार्यपालिका से जुड़े हुए अधिकारी अपनी मनमानी कर रहे हैं। न्यायपालिका मौन रहकर उनका समर्थन कर रही है। आजादी के अमृत महोत्सव में यह सबसे चिंताजनक स्थिति है। सार्वजनिक मंचों से न्यायमूर्ति भी बातें तो बड़ी नैतिकता और संविधान की करते हैं। किन्तु जब उन पर अमल करने की जरूरत होती है। उस समय वह भावना कहीं नजर नहीं आती है। जिस तरीके से लोगों का न्यायपालिका के ऊपर से विश्वास कम हो रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था और जनमत के विश्वास को अविश्वास में बदल रहा है।

न्यायपालिका के लिए चाहे सरकार हो अथवा आम नागरिक हों। दोनों को एक ही नजर से देखने की जरूरत है। सरकार समर्थ है। आम नागरिक कमजोर होता है। न्यायालयों का संरक्षण आम नागरिकों के लिये होना चाहिए। लेकिन न्यायपालिका की नजर अब बदल गई है। न्याय पाना आम लोगों के लिए मुश्किल हो गया है, जिसके कारण अब जनसामान्य में न्यायपालिका के प्रति, जो विश्वास कुछ वर्षों पूर्व तक बना हुआ था। वह अविश्वास में बदलता जा रहा है। न्यायमूर्ति को ईश्वर का दूसरा प्रतिरूप माना जाता है। अब यह धारणा खंडित होती जा रही है। अब न्यायपालिका को खुद ही अपनी सफाई देने आगे आना पड़ रहा है। न्यायपालिका के निर्णय और न्यायाधीशों की कार्यप्रणाली सोशल मीडिया में इस तरीके से ट्रोल हो रही है। आपातकाल में भी 1 वर्ष से अधिक जेलों में बंद रखना मुश्किल होता था। अब आरोप पहले लगता है। जेलों में बंद कर दिया जाता है। कई वर्षों तक आरोपियों को बंद रख जाता है। न्यायापालिकायें भी संविधान द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता के मूल अधिकार को नजर अंदाज कर अपनी जिम्मेदारी से बच रही है। यह स्थिति 75 वर्ष के स्वतंत्रता इतिहास में गंभीर चिंता पैदा करती है।

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