राजनैतिकशिक्षा

विपक्ष को झटका

-सिद्धार्थ शंकर-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

देश के 15वें राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मू मिल चुकी हैं। दरअसल, इस चुनाव पर समूचे देश में नजर थी कि क्या चुनाव के बाद देश में राष्ट्रपति पद पर पहली बार एक आदिवासी महिला का चुनाव हो सकेगा। सांस्कृतिक-सामाजिक और धार्मिक विविधताओं से भरे देश में यह एक स्वाभाविक जिज्ञासा थी कि सर्वोच्च पद पर भी क्या हाशिये के तबकों और खासतौर पर आदिवासी समुदाय के बीच से किसी शख्सियत के दिखने की उम्मीद पूरी होगी। यह छिपा नहीं है कि आजादी के सात दशक बाद भी वंचित तबकों को प्रतिनिधित्व और भागीदारी हासिल करने के लिए कई स्तरों पर संघर्ष से गुजरना पड़ता है। अब द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद के लिए चुन लिए जाने के बाद यह कहा जा सकता है कि देश ने अपने लोकतांत्रिक स्वरूप को दिनोंदिन मजबूत किया है और इसमें सबकी सहभागिता सुनिश्चित करने की ओर ठोस कदम बढ़ाए हैं। राष्ट्रपति चुनाव में मतदान के दौरान अनेक राज्यों में कांग्रेस समेत कुछ विपक्षी दलों के विधायकों ने एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में वोट डाला है। पहले से विभाजित विपक्ष के लिए यह निश्चित ही एक झटका है। इसकी पृष्ठभूमि को ठीक से समझने के लिए हमें भाजपा और विपक्ष की रणनीतियों को देखना होगा। भाजपा ने बहुत सधे अंदाज में अपना दांव खेला, जबकि विपक्ष ने देर की। कुछ दशक पहले राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार का चयन बहुत पहले हो जाता था। संभावित नामों पर हर पहलू से विचार होता था और चयनित व्यक्ति को बता भी दिया जाता था कि उन्हें इसे अभी सार्वजनिक नहीं करना है, पर उन्हें तैयार रहना चाहिए। इस बार ममता बनर्जी ने बैठक बुलाई और विचार-विमर्श शुरू हुआ। पहले ऐसी बैठकें अंतिम प्रक्रिया होती थीं, जिनमें नाम की घोषणा होती थी। प्रारंभिक दौर में शरद पवार, फारूक अब्दुल्ला और गोपाल कृष्ण गांधी के नाम आए, पर तीनों ने उम्मीदवार बनने से मना कर दिया। इससे संकेत गया कि कोई विपक्ष की ओर से खड़ा ही नहीं होना चाहता। आखिरकार यशवंत सिन्हा का नाम सामने आया। किसी को भी यह अंदाजा नहीं था कि द्रौपदी मुर्मू भाजपा की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार होंगी। यह भी विपक्ष की एक विफलता है। आज सरकार में शामिल लोगों को पता है कि विपक्ष के भीतर क्या विचार-विमर्श चल रहा है, लेकिन विपक्ष को कोई भनक नहीं लग सकी। राजनीति में सामने खड़ी शक्ति के बारे में जानकारी रखना जरूरी होता है, तभी तो ठोस रणनीति बन सकेगी। भाजपा ने मुर्मू की उम्मीदवारी से बड़ा तीर मारा। देश के सर्वोच्च पद पर एक आदिवासी महिला का आसीन होना एक बहुत बड़ा संकेत है। पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत के साथ हिंदी पट्टी और पश्चिमी भारत में यह तबका राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है। इनमें कई इलाकों में भाजपा का व्यापक वर्चस्व है। लेकिन स्वाभाविक रूप से दस साल की सत्ता के बाद कुछ एंटी-इनकंबेंसी तो होगी ही। उसकी भरपाई के लिए जनाधार में नये तबकों को लाना जरूरी है। इस संबंध में यह रणनीति अपनाई गई। भाजपा की रणनीति का दूसरा पहलू था पूर्वी भारत में गैर-भाजपा सरकारों को कमजोर करना। भाजपा की नजरें दक्षिण भारत के साथ पूर्वी भारत पर भी हैं। पूर्वी भारत के तीन राज्यों-पश्चिम बंगाल, ओडिशा और झारखंड-में आदिवासी समुदाय में संथाल जनजाति की बड़ी संख्या है। द्रौपदी मुर्मू इसी जनजाति से आती हैं। वे ओडिशा से भी हैं। बंगाल के संथाल बहुल इलाकों में ममता बनर्जी का बड़ा जनाधार है। वह पकड़ अब धीरे-धीरे कमजोर होगी। इस चुनाव में विपक्ष 2024 के आम चुनाव के मद्देनजर अपनी एकता को विस्तार दे सकता था। भले ही मजबूत एकता के बाद भी यशवंत सिन्हा या विपक्ष का कोई उम्मीदवार जीत नहीं पाता, लेकिन भाजपा उम्मीदवार को अच्छी टक्कर दे सकते थे। विपक्ष यह तो देश की जनता को दिखा ही सकता था कि उसमें एकताबद्ध होने की क्षमता व संभावना है। लेकिन आज विपक्ष पूरी तरह से तितर-बितर दिख रहा है। कहीं न कहीं राष्ट्रपति चुनाव की इस मुहिम ने विपक्ष को कमजोर ही किया है।

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