राजनैतिकशिक्षा

शिवलिंग की वैश्विक महिमा

-प्रमोद भार्गव-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

वाराणसी अर्थात काशी की ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में न्यायालय के आदेश के अंतर्गत हुए वीडियो एवं फोटोग्राफी सर्वेक्षण में विशाल शिवलिंग मिला है। मस्जिद प्रांगण में वजू करने की जगह बने कुंड में मिला है। इसकी लंबाई 12 फीट 8 इंच और व्यास 4 फीट है। इसमें आश्चर्य की बात हैै कि काशी विश्वनाथ मंदिर प्रांगण में नंदी महाराज का जिस ओर में मुंह है, उसी दिशा में शिवलिंग मिला है। ध्वस्त किए गए वर्तमान विश्वनाथ मंदिर को 1780 में इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने बनवाया था। मुख्य मंदिर को 1194 में मोहम्मद गोरी ने, 1505 एवं 1515 में सिकंदर लोधी ने, 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने और अंतिम बार 1669 में औरंगजेब ने ध्वस्त किया था। कैथरीन एसर ने अपनी पुस्तक आर्किटेक्चर ऑफ मुगल इंडिया में लिखा है कि मुगलों ने काशी में राजा मानसिंह द्वारा निर्मित प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था, ताकि हिंदुओं को मानसिक दंड दे सकें। वैसे शिवलिंग भारत में तो उत्खनन में मिलते ही रहे हैं, लेकिन पूरी दुनिया में शिवलिंग मिलते रहे हैं। इससे पता चलता है कि चार से दस हजार साल पहले तक भगवान शिव के अनुयायी पूरी दुनिया में थे।
विकसित होती सभ्यता कैसे संस्कारों में ढलती है, इसका एक उदाहरण लोक साहित्य में अभिव्यक्त ऋशियों, ऋशि-पत्नियों और अनार्य देव षिव के साथ घटी घटना में देखते हैं। एक बार वन में इकट्ठे हुए ऋशि, पत्नियों के साथ यज्ञ कर रहे थे। तभी नंग-धड़ंग अक्खड़ षिव ने यज्ञ-स्थल के बगल से गमन किया। ऋषि पत्नियां शिव को दिगंबर अवस्था में देख काम सुख भोगने को इच्छुक हो गईं। भोग की लालसा लिए वे शिव दल के पीछे चल दीं। अनायास हुई इस अमर्यादित स्थिति से ऋषि क्रोधित हो गए। उनका पुरुशोचित अहंकार विचलित हो गया। उन्होंने तत्काल यज्ञ की महिमा व षक्ति से एक बाघ, एक विशैला सर्प और एक क्रूर राक्षस षिव के दमन के लिए पीछे दौड़ा दिए। अब षिव को तो अनंत षक्तियों का रचायिता व निर्माता माना जाता है, सो उन्हें इनके समाहार में क्या परेषानी थी? अतएव उन्होंने बाघ को मारकर चर्म उतारा और कमर में लपेट लिया। उनकी यह उदात्त पहल प्रकृति प्रदत्त अवस्था से सभ्यता की ओर प्रस्थान थी। सर्प को पकड़कर वषीभूत किया और गले में हार बना लिया। यह प्रकृति के जीवों के सरंक्षण का लोक हितकारी पहला उपाय था। तत्पष्चात उन्होंने राक्षस को दबोचा और भूमि पर पटक दिया। फिर वे उसकी पीठ पर चढ़े और नाचने लगे। यह वही नृत्य था, जिसकी अवलोकित होने वाली छवि को ‘नटराज‘ की संज्ञा दी गई। इसमें राक्षसी बल का अहंकार त्यागकर सरलता से जीवन जीने का संदेष अंतर्निहित है। सभ्यता के विकासक्रम में ये तीन बिंदु नग्नता पर आवरण, सर्प के संदर्भ में प्रकृति का सरंक्षण और नृत्य के रूप में आनंद की अनुभूति से जुड़े हैं। नृत्य और संगीत सनातन संस्कृति की अद्वितीय देन हैं। नृत्य, संगीत और चित्रकला के माध्यम से जो भी रूप भारतीय पौराणिक मिथकों के रूप में प्रचलित हैं, उन्हें प्रत्येक विचारधारा में प्रगतिषील माना गया है। किंतु यहीं मिथक-रूप जब विज्ञान के संदर्भ में परिभाशित किए जाते हैं, तो तथाकथित वाममार्गी वितण्तावाद खड़ा कर देते हैं।
वैदिक काल में इंद्र ने जब देव संगठन बना लिया और स्वयं को स्वयंभू घोषित कर देवराज इंद्र बन गए, तब इंद्र ने शिव के अनुयायी रुद्रों की उपेक्षा षुरू कर दी। परिणामस्वरूप वे यज्ञ-भाग से वंचित हो गए। इस घटना के साथ ही इंद्र और विवस्वान सूर्य ने अपनी व्यक्ति पूजा आरंभ करा दी। ब्राह्मणों को दान-दक्षिण देकर ऋचाएं और और गीत अपनी प्रशंसा में सृजन करा दिए। इसीलिए ऋग्वेद में सबसे ज्यादा ऋचाएं इंद्र पर संकलित हैं। यहीं से प्रशंसा प्रणाली या अपने मत के विचार को विस्तृत करने की धारा ने जन्म लिया। इस एकपक्षीय वैचारिक प्रणाली के विकसित हो जाने से रुद्रों के समक्ष अस्तित्व का संकट पैदा हो गया। फलतः उन्होंने अपनी भिन्न सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने की दृष्टि से भग और लिंग की पूजा प्रारंभ कर दी। मिट्टी, काठ व पत्थर के योनि-लिंग इसी समय से आकार लेने लग गए। इस अभियान से रुद्रों के समर्थक बढ़ गए। लिंग पूजकों की बढ़ती संख्याबल से इंद्र चिंतित हो गए। देवराज इंद्र ने इस चिंता के समाधान के लिए एक सभा आहूत की और उसमें रुद्रों को भी आमंत्रित किया। रुद्र सभा में उपस्थित हुए। तब इंद्र ने रुद्रों से पूछा, ‘आप सभी रुद्र गण हमारे ही वंश के हैं, फिर हमसे पृथक रह कर अपनी अलग पूजा पद्धति क्यों विकसित कर रहे हैं? रुद्र ने उत्तर दिया, ‘आपने हमें देव संगठन और यज्ञ-भाग से निष्कासित किया हुआ है, अतएव हमने भिन्न मार्ग और उपासना पद्धति चुन लिए हैं। आपने स्वयं को तो देवराज घोषित किया, किंतु हमें नगण्य मानकर बहिष्कृत कर दिया।‘ तब इंद्र ने ‘हर‘ को महादेव कहा और रुद्रों की यज्ञ-भाग में भागीदार स्वीकार की। यहीं रुद्रों ने लिंग-पूजा करने की शर्त भी मनवा ली। रुद्र लिंग-पूजा इसलिए अनवरत रखना चाहते थे, जिससे स्त्री-पुरुश को संसर्ग के लिए प्रेरित करके अपने समूह का संख्याबल बढ़ा सकें।
इस समझौते के बाद संपूर्ण संसार में योनि-लिंग की पूजा प्रचलन में आ गई। इसके साथ ही रुद्रों के वंषों का पृथ्वी के बहुत बड़े भू-भाग पर विस्तार होने लगा। ऋग्वेद, साइक्स कृत पर्शिया का इतिहास और विष्णु पुराण में इस विस्तार का उल्लेख है। आरंभ में रुद्र हेमकूट, हिंदुकुश और सरवन पर्वत क्षेत्रों में रहे। सरवन एशिया माइनर में है। इसी को उस कालखंड में शिव-देश कहा जाता था। ईरान में शंकर प्रदेश के अंतर्गत एक ‘जाट‘ प्रांत है। यहां जाटा और जिप्सी जाति के लोग रहते हैं। एक समय यहीं शिव रहा करते थे। इस भूखंड में रहने के कारण ही शिव जटाधारी कहलाए। ईरान में एक स्थल का नाम ‘हिरात‘ है। देव व असुर युग में इसी भू स्थल का नाम ‘हर राश्ट्र‘ था। यही रुदबर प्रदेष था। यहां रुद्र रहते थे। कैलाश पर्वत के पूर्व की ओर लोहित्य गिरी के ऊपर ‘भद्रवट‘ नाम का भूखंड है, यहां भी शिव रहे हैं। अरब और अफ्रीका में भी अनेक जगह षिव रहे हैं। अरब में एक ‘उमा‘ प्रदेश है। षिव की पत्नी का नाम उमा है। इससे ज्ञात होता है कि दक्ष प्रजापति के राज का विस्तार उमा प्रदेष तक था। अतएव उनकी पुत्री का नाम उमा पड़ा। इन्हीं उमा का एक नाम सती है। षिव का प्रभाव अफ्रीका तक रहा है। जिसे आज सूड़ान कहा जाता है, एक समय वह ‘षिवदान-प्रदेष‘ या ‘सुदान‘ कहलाता था। षिवदान का ही अपभ्रंष सूड़ान है। अरब का प्राचीन धर्म षिव या षैव संप्रदाय से ही संबद्ध था। मक्का का प्रसिद्ध ‘संगे-असबद‘ प्राचीन षिव-लिंग ही है। यही कारण है कि षिवलिंग के प्रमाण आज भी पष्चिम एषिया, अरब एवं अफ्रीका में तो मिलते ही हैं, भू-गर्भ का उत्खनन करने पर भी अनायास भी मिल जाते हैं। इसीलिए पृथ्वी के बहुत बड़े भूखंड का आदि स्रोत सनातन संस्कृति है।

शिव और नंदी का संबंध
शिव के वाहन नंदी यानी वृषभ का नंदी शिव के वाहन के रूप में जाने जाते हैं, क्योंकि वृषभ लोकव्यापी प्राणी होने के साथ खेती-किसानी का भी प्रमुख आधार है। यानी खेती का यांत्रिकीकरण होने से पहले बिना बैल के खेती संभव ही नहीं थी। फिर शिव ने लोक कल्याण की दृष्टि से सर्वहारा वर्ग के ज्यादा हित साधे हैं, उन्हीं के बीच उन्होंने अधिकतम समय बिताया है। इसलिए ऐसे उदार नायक का वाहन बैल ही सर्वोचित है। नंदी के वाहन होने के कारण शिव को नंदीश्वर, वृषध्वज और वृशभकेतन नामों का विष्णु धर्मोत्तरपुराण, मत्स्यपुराण, रामायण और महाभारत में उल्लेख किया गया है।
हमारे ऋषि -मुनियों ने प्रकृति के रहस्यों की गवेशणा को आरंभिक अवस्था में ही समझ लिया था कि प्रकृति के अन्य जीव-जगत के साथ ही मनुश्य का सह-अस्तित्व संभव व सुरक्षित है। इसी कारण सभ्यता और संस्कृति का विकास-क्रम आगे बढ़ा, वैसे-वैसे अलौकिकि शक्तियों में प्रकृति के रूपों को प्रक्षेपित करने के साथ, पषु-पक्षियों को भी देवत्व से जोड़ते गए। नंदी को विरक्ति का द्योतक माना जाता है, इसलिए साधनारत षिव के लिए नंदी षक्ति के भी प्रतीक हैं और विरक्ति के भी।
पूराणों में वृषभ को धर्म-रूप में प्रस्तुत किया गया है। इनके चार पैरों को सत्य, ज्ञान, तप तथा दान का प्रतीक माना गया है। शिवलिंग की उत्पत्ति को विद्युत तरंगों से भी होना मानते हैं। इसके आकार को ब्रह्मांड का रूप माना गया है। इस कारण शिव को विद्युताग्नि और नंदी को बादलों का प्रतीक माना गया है। बादल के प्रतीक होने के कारण ही शिव के नंदी शुभ्र-श्वेत हैं। शिवलिंग के रूप में योनि और लिंग प्रजनन के शक्ति के प्रतीक भी हैं, इसलिए वृशभ को काम का प्रतीक भी माना गया है। इसे काम का प्रतीक इसलिए भी माना गया है, क्योंकि इसमें काम शक्ति प्रचुर मात्रा में होती है। इस नाते वृषभ, सृजन शक्ति का प्रतीक है। षिव को नंदी पर आरुढ़ भी दिखाया गया है। इसका आशय है कि एक षिव ही हैं, जो कामियों की वासनाओं को नियंत्रित करने में या उन पर विजय प्राप्त करने में सक्षम हैं। स्पश्ट है, काम के रूप में वृषभ का प्रतीक षिव को विष्व की सृश्टि के लिए अभिप्रेरणा का द्योतक भी है। अतएव जहां-जहां शिवलिंग मिलते हैं, वहां-वहां नंदी भी मिल जाते हैं।

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