आर्थिक सुस्ती दूर करने के लिये मांग पैदा करने, निवेश बढ़ाने को लेकर अर्थशास्त्रियों की राय अलग अलग
नई दिल्ली, 10 सितंबर (ऐजेंसी/सक्षम भारत)। आर्थिक क्षेत्र के विशेषज्ञ देश में मौजूदा आर्थिक सुस्ती के लिए मांग की कमजोरी को एक बड़ा कारण मानते हैं। इसे दूर करने के लिए कुछ विशेषज्ञ घरेलू उपभोग बढ़ाने के उपायों पर जोर दे रहे हैं तो कुछ सरकारी निवेश में तेजी देखना चाहते हैं। कुछ अर्थशास्त्री ग्रामीण मांग बढ़ाने और वित्तीय प्रोत्साहन देने का सुझाव दे रहे जबकि कुछ का कहना है कि भारत में वास्तविक ब्याज दर लंबे समय तक ऊंची होने से उपभोग और निवेश की मांग प्रभावित हुई है। आर्थिक सुस्ती गहराने के मूल में हालांकि, सभी का इशारा मांग की कमी होने की तरफ ही रहा है लेकिन मांग पैदा करने और अर्थव्यवस्था में गतिविधियां बढ़ाने के बारे में उनके सुझाव अलग अलग रहे हैं। उल्लेखनीय है कि चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर छह साल के निम्न स्तर, पांच प्रतिशत पर पहुंच गई। रिजर्व बैंक ने अपनी ताजा मौद्रिक समीक्षा में इस वित्त वर्ष की आर्थिक वृद्धि का अनुमान सात प्रतिशत से घटाकर 6.9 प्रतिशत कर दिया। कुछ वैश्विक एजेंसियों ने इसके 6.5 प्रतिशत या उससे भी कम रहने का अनुमान जताया है। नेशनल इंस्टीट्यूट आफ पब्लिक फाइनेंस एण्ड पालिसी के प्रोफेसर एन आर भानुमूर्ति कहते हैं, ‘‘इस समय सरकार को सड़क, रेलवे, बिजली, ग्रामीण एवं शहरी आवास क्षेत्र की तमाम बड़ी परियोजनाओं को तेजी से आगे बढ़ाना होगा ताकि आर्थिक गतिविधियों में तेजी आये।’’ उन्होंने कहा, ‘‘आर्थिक सुस्ती तो काफी पहले शुरू हो गई थी हालांकि, सरकार इसे अब महसूस कर रही है। इसकी वजह चक्रीय और संरचनात्मक दोनों तरह की हैं।’’ भानुमूर्ति ने कहा, ‘‘आपको वित्तीय प्रोत्साहन देने होंगे, मौद्रिक उपाय का फिलहाल असर नहीं होगा। सरकार के वित्तीय प्रोत्साहनों का स्वरूप 2008-09 की तरह नहीं होना चाहिये। सीधे उपभोक्ता खपत बढ़ाने वाले उपाय यदि होंगे तो मुद्रास्फीति बढ़ सकती है इसलिये इससे बचना होगा। पूर्ववर्ती योजना आयोग में प्रधान आर्थिक सलाहकार रहे प्रणव सेन इस मामले में सीधे मांग की कमी को आर्थिक सुस्ती की वजह बताते हैं। उनका कहना है कि ग्रामीण क्षेत्र में मांग कमजोर बनी हुई है। शहरी गरीब लोगों की आमदनी कम है। इससे जनसंख्या के एक बड़े तबके की मांग कमजोर बनी हुई है। उनका स्पष्ट मानना है कि अर्थव्यवस्था में आपूर्ति की कोई तंगी नहीं है बल्कि मांग की कमी बनी हुई है। उनका सुझाव है कि किसानों को सालाना 6,000 रुपये देने की पीएम किसान योजना पर तेजी से अमल होना चाहिये। ग्रामीण स्तरीय परियोजनाओं जैसे कि ग्रामीण सड़क योजना, लघु सिंचाई योजना, सस्ती आवास योजना पर काम तेज होना चाहिये। इनमें स्थानीय ठेकेदारों और स्थानीय कामगारों को काम दिया जाना चाहिये। वहीं सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट रिसर्च (सीजीडीआर) के निदेशक डा. कन्हैया सिंह ने कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्यतः आपूर्ति प्रेरित है। देश में मानसून अच्छा रहता है तो बाजार में गर्मी आती है। इस तरह उद्योग धंधे मानसून की चाल पर निर्भर करते हैं। उन्होंने आर्थिक सुस्ती के स्वरूप पर एक अलग नजरिया पेश करते हुए कहा कि अप्रैल- जून 2019 की पहली तिमाही में विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि कम रही है लेकिन बिजली क्षेत्र की वृद्धि 8.62 प्रतिशत पर अच्छी रही है। विनिर्माण क्षेत्र अच्छा नहीं कर रहा है लेकिन अन्य क्षेत्र अपेक्षाकृत ठीक प्रदर्शन कर रहे हैं इसको समझने की जरूरत है। बिजली क्षेत्र का प्रदर्शन अच्छा है तो इसकी खपत हुई उत्पादन भी हुआ लेकिन बिक्री नहीं हुई। यह पिछले साल के ऊंचे स्तर का भी असर हो सकता है। भानुमूर्ति कहते हैं कि विदेशी जोखिम को कम करने के लिये घरेलू क्षेत्र पर ध्यान देना होगा। घरेलू बचत को बढ़ावा दिया जाना चाहिये। अवसंरचना बॉंड, कर मुक्त सुविधा वाले बॉंड जारी किये जा सकते हैं। प्रणव सेन का कहना है कि समस्या मांग की है जबकि सरकार के उपाय आपूर्ति बढ़ाने की तरफ अधिक हैं। बैंकों में नकदी उपलब्ध है लेकिन मांग नहीं है। कन्हैया सिंह कहते हैं कि भारत जैसे देश में मुद्रास्फीति को लक्षित दायरे में बांधना ठीक नहीं है। पिछले डेढ़ दो साल में मुद्रास्फीति कम रहने के बावजूद रिजर्व बैंक की रेपो दर को ऊंचा रखा गया। इसमें कमी नहीं की गई परिणामस्वरूप वास्तविक ब्याज दर ऊंची बनी रही। इसका निवेश पर असर पड़ता है। सिंह का मामना है कि 2019-20 की जीडीपी वृद्धि सात प्रतिशत के आसपास रहेगी। प्रणव सेन ने कहा वृद्धि 5.5 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी लेकिन भानुमूर्ति का मानना है कि यह 6 से 6.5 प्रतिशत के दायरे में रह सकती है।