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एक रैंक-एक पेंशन सरकार का नीतिगत निर्णय, कोई संवैधानिक दोष नहीं : न्यायालय

नई दिल्ली, 16 मार्च (ऐजेंसी/सक्षम भारत)। उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को कहा कि सशस्त्र बलों में वन रैंक-वन पेंशन (ओआरओपी) सरकार का एक नीतिगत फैसला है और इसमें कोई संवैधानिक दोष नहीं है। न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़़, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ की पीठ ने कहा कि एक रैंक- एक पेंशन का केंद्र का नीतिगत फैसला मनमाना नहीं है और सरकार के नीतिगत मामलों में न्यायालय दखल नहीं देगा।

पीठ ने निर्देश दिया कि ओआरओपी के पुनर्निर्धारण की कवायद एक जुलाई, 2019 से की जानी चाहिए और पेंशनभोगियों को बकाया भुगतान तीन महीने में होना चाहिए। शीर्ष अदालत ने इसके साथ ही सेवानिवृत्त सैनिक संघ ने की उस याचिका का निपटारा कर दिया भगत सिंह कोश्यारी समिति की सिफारिश पर पांच साल में एक बार आवधिक समीक्षा की वर्तमान नीति के बजाय स्वत: वार्षिक संशोधन के साथ ‘वन रैंक वन पेंशन’ को लागू करने का अनुरोध किया गया था।

फैसले के एक अंश की घोषणा करते हुए न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि सभी पेंशनभोगी जो समान रैंक रखते हैं, उनके सुनिश्चित कैरियर प्रगति और संशोधित सुनिश्चित कैरियर प्रगति को ध्यान में रखते हुए उन्हें ‘समरूप वर्ग’ में नहीं रखा जा सकता है। शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसा कोई कानूनी आदेश नहीं है कि समान रैंक वाले पेंशनभोगियों को समान पेंशन दी जानी चाहिए क्योंकि वे एक समरूप वर्ग नहीं बनाते हैं। इस मामले में करीब चार दिनों तक चली लंबी सुनवाई के बाद शीर्ष अदालत ने 23 फरवरी को फैसला सुरक्षित रख लिया था। न्यायालय ने यह फैसला ओआरओपी के केन्द्र के फार्मूले के खिला इंडियन एक्स-सर्विसमेन मूवमेंट (आईईएसएम) की याचिका पर सुनाया।

शीर्ष अदालत ने कहा था कि वह जो भी फैसला करेगी वह वैचारिक आधार पर होगी न कि आंकड़ों पर। न्यायालय ने कहा, ‘‘जब आप (केंद्र) पांच साल के बाद संशोधन करते हैं, तो पांच साल के बकाया को ध्यान में नहीं रखा जाता है। भूतपूर्व सैनिकों की कठिनाइयों को कुछ हद तक कम किया जा सकता है यदि अवधि को पांच वर्ष से घटाकर कम कर दिया जाए।’’ केंद्र ने कहा है कि जब पांच साल बाद संशोधन किया जाता है, तो अधिकतम अंतिम वेतन, जिसमें सभी कारकों को ध्यान में रखा गया था, को ब्रैकेट में सबसे कम के साथ ध्यान में रखा जाता है और यह बीच का रास्ता दिया जा रहा है।

सरकार ने कहा, ‘‘जब हमने नीति बनाई तो हम नहीं चाहते थे कि आजादी के बाद कोई पीछे छूटे। समान रूप से व्यवहार किया गया। हमने पिछले 60-70 वर्षों को शामिल किया है। अब, अदालत के निर्देश के माध्यम से इसमें संशोधन का निहितार्थ हमें ज्ञात नहीं हैं। वित्त और अर्थशास्त्र के साथ कुछ भी सावधानी से विचार करना होगा। पांच साल की अवधि उचित है और इसके वित्तीय निहितार्थ भी हैं।’’ आईईएसएम की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता हुजेफा अहमदी और श्रीनिवासन ने कहा था कि अदालत को यह ध्यान रखना होगा कि यह उन पुराने सैनिकों से संबंधित है, जिन्होंने अत्याधुनिक हथियारों से लैस आज के समय के सैनिकों के विपरीत आमने-सामने की लड़ाई लड़ी।

 

 

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