कांग्रेस का मंथन
-सिद्धार्थ शंकर-
-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-
पांच राज्यों में करारी हार के बाद मंथन के लिए बुलाई गई बैठक में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक फिर पुराने अंदाज में खत्म हो गई। कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इस्तीफे की पेशकश की। लगे हाथ प्रियंका गांधी ने भी जिम्मेदारी छोड़ने का ऐलान कर दिया। मगर पहले से तैयार स्क्रिप्ट के मुताबिक सदस्यों ने हार की वजह सभी को बताया और गांधी परिवार को इस्तीफा न देने पर मना लिया। सवाल यह है कि क्या इससे कांग्रेस वापस जीत की राह पर आ जाएगी या देश की जनता पार्टी को फिर से स्वीकार कर लेगी। कतई नहीं। अगर कांग्रेस यह समझ रही है कि वह प्रचार में कमजोर है या जनता के बीच बात नहीं रख पा रही है या फिर प्रत्याशी चयन जिम्मेदार है, तो यह उसकी भूल है। कांग्रेस आज जो भरोसा खो चुकी है, वह कार्यसमिति की बैठक से दूर होने वाली नहीं है। उसे हमेशा याद रखना होगा कि मुकाबला भाजपा से है, जिसके पास कैडर है, जन समर्थन है। इससे भी ज्यादा नरेंद्र मोदी का नेतृत्व है। हर बार हार की समीक्षा से काम नहीं चलेगा। नेतृत्व को नए सिरे से सोचना होगा। हार की कोई एक वजह नहीं होती। जिस पर मंथन कर लिया और जीतने की गारंटी मिल गई। कार्यसमिति की बैठक में कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि हम भाजपा और उसकी विचारधारा से लड़ेंगे, अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाएंगे। यह कहते हुए खडग़े भूल गए कि भाजपा की विचारधारा हिंदुत्व है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी भी तो पिछले कुछ चुनाव में हिंदुत्व को साधने का भरसक प्रयास कर चुके हैं। अगर खड़गे कह रहे हैं कि पार्टी भाजपा की विचारधारा से लड़ेगी तो क्या राहुल और प्रियंका हिंदुत्ववादी होने का दिखावा कर रहे हैं। कांग्रेस आज जो भी कहे, मगर सच तो यह है कि वह अपनी ही विचारधारा को लेकर असमंजस में है। असल में 2019 के लोकसभा चुनाव में बमुश्किल 52 सीटें और महज पांच राज्यों में (तीन राज्यों में कांग्रेस और दो में गठबंधन) सत्ता पा सकने वाली पार्टी बन चुकी कांग्रेस अब गांधी परिवार का स्वामित्व और क्षेत्रीय नेताओं की राजनीति के बीच कहीं उलझ चुकी है। पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में क्षेत्रीय नेतृत्व में जबरदस्त कलह है। मध्य प्रदेश तो कांग्रेस के हाथ से गया ही अपनी पार्टी में टूट की वजह से। पंजाब में कांग्रेस आलाकमान की नई रणनीति ने सत्ता हाथ से गंवा दी। अब वहां भी संगठन में तलवारें खिंच गई हैं। हरियाणा में भले ही सरकार कांग्रेस की ना हो लेकिन खेमेबंदी कम नहीं है, पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खिलाफ खुलकर खेमेबाजी हो रही है जिसकी धुरी में कुमारी शैलजा हैं। राजस्थान में सरकार बनने के पहले दिन से अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच कद की लड़ाई रही है, जिसमें अभी तक गहलोत अपने तजुर्बे के दम पर 21 ही साबित हुए हैं, लेकिन पिछड़ों को नेतृत्व देने की राह पर चल पड़ा कांग्रेस आलाकमान आखिर कब तक गुर्जर समाज से आने वाले सचिन पायलट की नाराजगी को दरकिनार करता रहेगा या फिर यहां भी चुनाव से ठीक पहले सत्ता की तस्वीर को बदल दिया जाएगा जो कि पायलट गुट को बनाए रखने का एकमात्र तरीका है। गांधी परिवार का स्वामित्व और क्षेत्रीय नेताओं की राजनीति के बीच की खाई को पाट पाना अब संभव नहीं है, क्योंकि इस फेहरिस्त में वह सब नाम शुमार हैं जिन्होंने गांधी परिवार से आने वाले अपने नेताओं के लिए लाठियां भी खाई हैं और जिंदगी के कई दिन जेलों में भी बिताए हैं, तब गांधी परिवार सत्ता की धुरी था आज एक अदद विपक्ष बनने को मोहताज है। पार्टी लगातार दो लोकसभा और अब पांच राज्यों के चुनाव हारने के बाद संकट से गुजर रही है और ऐसे में नए नेतृत्व पर विचार होना ही चाहिए। कांग्रेस में गांधी परिवार के बाहर पार्टी की कमान संभालने की काबिलियत रखने वाले लोग तो बिलकुल हैं, लेकिन पार्टी ही उनका नेतृत्व स्वीकार करेगी या नहीं इस पर संदेह है।