राजनैतिकशिक्षा

सैन्य प्रशिक्षण की अनिवार्यता पर विचार हो

-प्रताप सिंह पटियाल-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

‘यदि आप शांति चाहते हैं तो युद्ध की तैयारी करें’- यह पंक्ति रोमन सैन्य विशेषज्ञ जनरल ‘वेगेटियस रेनाटस’ की किताब ‘एपिटोमा री मिलिटारिस’ में दर्ज है। अमेरिका के संस्थापक एवं राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन (1732-1799) ने भी जनरल वेगेटियस के उस कथन का समर्थन किया था। जॉर्ज वाशिंगटन खुद एक सैन्य अधिकारी थे। वेगेटियस की किताब को पश्चिमी देश एक महत्त्वपूर्ण सैन्य ग्रंथ मानते हैं। उसी प्रकार चीन की सेना अपने प्राचीन सैन्य रणनीतिकार ‘सुन्त जू’ द्वारा रचित किताब ‘आर्ट ऑफ वार’ के उसूलों को ही सर्वोपरि मानती है। आम लोगों को ‘वेगेटियस’ का युद्ध पर आधारित यह कथन भले ही अजीब लगता हो, लेकिन जब देश की सीमाएं मशरिक में जंगी सनक में डूबे तानाशाह व एटमी ताकत देश चीन के साथ लगती हों तथा मगरिब में मुल्क की सरहदें दहशतगर्दी के रहनुमा पाकिस्तान व मजहबी सल्तनत कायम कर चुके अफगानिस्तान जैसे मुल्कों से सटी हो तो जरूरी है कि देश की सेना किसी भी चुनौती से निपटने में हमेशा तत्पर रहे तथा देश का युवावर्ग भी सैन्य शिक्षण व प्रशिक्षण की तालीम में माहिर हो। यूक्रेन व रूस में चल रहे युद्ध में बर्बादी की दास्तां बने यूक्रेन की तबाही की खौफनाक तस्वीरों ने विश्व को कई सबक सिखा दिए। दुनिया की दूसरी बड़ी सैन्य ताकत रूस के साथ जंग की जद में फंस चुका यूक्रेन ‘नाटो’, ‘यूरोपियन यूनियन’ व ‘सलामती कौंसिल’ से मदद की गुहार लगाता रहा, मगर उसे केवल आश्वासन व सहानुभूति ही हासिल हुई। आज़ादी के बाद भारत पांच बडे़ युद्धों का दंश झेलकर दशकों से छद्म युद्ध का सामना कर रहा है तथा आज भी उन्हीं विश्वासघाती मुल्कों से घिरा है। सशस्त्र सेनाओं को मजबूत व उच्च दर्जे की नेतृत्व क्षमता प्रदान करने में सेना का ‘एंट्री गेट’ कहे जाने वाले देश के ‘राष्ट्रीय मिलिट्री स्कूल’ व ‘सैनिक स्कूल’ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं।

देश में कुल पांच राष्ट्रीय मिलिट्री स्कूलों में से चार बर्तानिया हुकूमत के दौर में वजूद में आए थे, जिनमें हिमाचल प्रदेश में स्थित मिलिट्री स्कूल ‘चैल’ की स्थापना सर्वप्रथम सन् 1925 में हुई थी। मिलिट्री स्कूलों का आदर्श वाक्य ‘शीलम् परम भूषणम’ अर्थात् ‘चरित्र ही सर्वोच्च गुण है’। देश में सैनिक स्कूलों की स्थापना का दौर सन् 1961 में शुरू हुआ था। हिमाचल में एकमात्र सैनिक स्कूल ‘सुजानपुर टीहरा’ में सन् 1978 में स्थापित हुआ है। इन स्कूलों का मकसद कैडेट्स को शारीरिक प्रशिक्षण, गुणवत्तायुक्त शिक्षा, अनुशासित जीवन, राष्ट्रवाद के विचारों व सैन्य गुणों की क्षमताओं का विकास तथा मानसिक रूप से मजबूत करके देश की प्रतिष्ठित सैन्य रक्षा अकादमियों में प्रवेश कराकर सशस्त्र सेनाओं के लिए निर्भीक सैन्य निष्ठा से लबरेज बेहतरीन युवा नेतृत्व प्रदान करना है। रक्षा मंत्रालय वर्ष 2021 में देश में सौ नए सैनिक स्कूल खोलने का लक्ष्य निर्धारित करके राज्य सरकारों से आवेदन मांग चुका है। सैनिक स्कूलों की स्थापना के लिए रक्षा मंत्रालय ने ‘पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप’ के सहयोग की पेशकश भी की है। यानी राज्य सरकारों के शैक्षणिक संस्थान व निजी निवेशक भी सैनिक स्कूल खेलने के लिए आवेदन कर सकते हैं। निजी स्कूलों को ‘सैनिक स्कूल सोसायटी’ से संबद्ध रखने की मंजूरी मिल चुकी है। वीरभूमि हिमाचल ने सेना को कई कुशल रणबांकुरे दिए जिन्होंने समरभूमि में अपने जीवन का हर लम्हा मातृभूमि की रक्षा को समर्पित करके राज्य को गौरवान्वित किया है। पहाड़ के सीने पर सजे 2 विक्टोरिया क्रॉस, 4 परमवीर चक्र, 2 अशोक चक्र जैसे आलातरीन सैन्य बहादुरी के पदक इस बात की तस्दीक करते हैं कि जंग-ए-मैदान में शत्रु के समक्ष शूरवीरता के प्रदर्शन के लिए पहाड़ का सैन्य पराक्रम किसी तारूफ का मोहताज नहीं है।

समय की मांग है कि सैन्य पृष्ठभूमि वाले प्रदेश में सैनिक स्कूलों की स्थापना हो ताकि भारतीय सेनाओं, पुलिस व पैरामिलिट्री फोर्स, प्रशासनिक सेवाओं के साथ खुफिया विभागों जैसी अहम संस्थाओं के उच्च पदों पर कुशल व सशक्त नेतृत्व काबिज हो। अतः राज्य सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों की प्रतिभाओं के उज्ज्वल भविष्य के मद्देनजर प्रदेश में सैनिक स्कूलों के विस्तार की तरफ नज़र-ए-इनायत करनी होगी। सन् 1959 में संविधान सभा के सदस्य व शिक्षाविद डा. हृदयनाथ कुंजरू ने सैन्य शिक्षा की अनिवार्यता की पैरवी की थी। सैनिक स्कूल कुंजपुरा के पूर्व छात्र तथा भारतीय सेना के साबिक जनरल दीपक कपूर (2007-2010) ने थलसेनाध्यक्ष रहते देश में ‘आवश्यक मिलिट्री सेवा’ का सुझाव दिया था। सन् 2017 में प्रधानमंत्री कार्यालय ने ‘मानव संसाधन विकास मत्रालय’ को सैनिक स्कूलों के एलिमेंट को नियमित स्कूलों में शामिल करने का सुझाव भी दिया था। बेशक हमारी सशस्त्र सेनाएं दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम हैं, लेकिन युद्ध के मुहाने पर खडे़ जिन मुल्कों से भारत घिरा है, इन देशों के बजट का एक बड़ा हिस्सा उनके रक्षा क्षेत्र पर ही खर्च होता है। युद्ध की चिंगारियां कभी भी मुल्क की दहलीज पर दस्तक दे सकती हैं। ऐसी विकट परिस्थितियां जब सामरिक हितों के लिए खतरा पैदा हो, छात्रों को राष्ट्रीय सुरक्षा में योगदान व नैतिक उन्नति तथा राष्ट्रवाद के जज्बात उत्पन्न करने के लिए शौक्षिक संस्थानों में सैन्य शिक्षण व प्रशिक्षण का महत्त्व बढ़ जाता है।

इजराइल व उत्तर कोरिया जैसे देशों में युवावर्ग के साथ महिलाओं को भी सैन्य सेवा व प्रशिक्षण अनिवार्य है, मगर भारतवर्ष की प्राचीन शिक्षा पद्धति गुरुकुलों में हमारे आचार्य शिष्यों को शिक्षा ज्ञान के साथ शस्त्र संचालन व युद्ध कलाओं में भी पारंगत करते थे। युद्धों की आहट से विश्व के सामरिक समीकरण बदल रहे हैं। लाजिमी है रक्षा क्षेत्र मंल आत्मनिर्भरता का लक्ष्य हासिल किया जाए। सशस्त्र सेनाएं अचूक मारक क्षमता वाले आधुनिक हथियारों से लैस हों तथा देश की सियासी कयादत भी आलमी सतह पर कूटनीतिक लड़ाई में माहिर हो। सशस्त्र सेना के बिना कोई भी राष्ट्र महाशक्ति नहीं बन सकता। याद रहे ब्रिटिश फिलोस्फर ‘बरट्रैंड रसैल’ ने कहा था ‘जंग से तय नहीं होता कि कौन सही है, केवल तय होता है कि कौन बचेगा’। छात्रों के आदर्श व प्रेरक जीवन के लिए भारतीय सेनाओं के युद्धों का गौरवमयी इतिहास शिक्षा पाठयक्रमों में शामिल करके उन्हें सैन्य क्षमताओं व सामरिक विषयों से अवगत कराना जरूरी है। सरकारें इस काम में पूर्व सैनिकों का लाभ ले सकती हैं।

 

 

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