राजनैतिकशिक्षा

किस करवट बैठेगा सत्ता का ऊंट

-पी. के. खुराना-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

ड्डपांच राज्यों में विधानसभा के लिए जनप्रतिनिधियों के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने प्रत्याशियों की घोषणा करनी शुरू कर दी है। फरवरी से मतदान शुरू हो जाएगा और मार्च में परिणाम भी आ जाएंगे। कोरोना के कारण शोर जरा कम है, पर सोशल मीडिया तथा ह्वाट्सऐप के माध्यम से लोगों तक पहुंचने की प्रक्रिया जारी है। यह चुनाव उस हाल में हो रहा है जब देश में विपक्ष अजब रूप से बिखरा हुआ है। ममता बनर्जी कांग्रेस को कोस रही हैं और कांग्रेस का पर्याय बनने की कोशिश में हैं, पर वे मात्र पश्चिम बंगाल तक सीमित हैं। बंगाली समाज से बाहर उनका कोई प्रभाव नहीं है, इसलिए उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे सत्तारूढ़ दल का विकल्प बन सकें। हालांकि यह भी सच है कि मोदी-शाह का मुकाबला करने में वे हमेशा पूरी आक्रामकता से अगुवाई करती रही हैं। इस मामले में केजरीवाल उनसे कुछ ज्यादा भाग्यशाली हैं।

एक, वे ममता से ही नहीं, देश भर में पहचाने जाने वाले शेष विपक्षी नेताओं से उम्र में काफी छोटे हैं। आज नहीं तो कल वे विपक्ष के बड़े नेता बन सकते हैं। केजरीवाल को यह भी लाभ मिला है कि उनकी पार्टी पंजाब में मजबूत है और धीरे-धीरे दूसरे कुछ प्रदेशों में अपने पांव फैला रही है। पहली बार चुनाव लड़ने के बावजूद बिल्कुल नौसिखिया उम्मीदवारों की टोली के साथ चंडीगढ़ नगर निगम चुनावों में आम आदमी पार्टी सबसे बड़ा दल बनकर उभरी, वह भी तब जब केंद्र में मोदी की मजबूत सरकार है। चंडीगढ़ केंद्र प्रशासित शहर है और यहां भाजपा का तगड़ा नेटवर्क है। निगम चुनावों में भाजपा के कई दिग्गज धराशायी हुए हैं। केजरीवाल के कार्यकर्ता संघ की ही तरह जमीन पर काम कर रहे हैं और आम आदमी पार्टी दिल्ली माडल की शिक्षा और मोहल्ला क्लीनिक का सुनियोजित प्रचार कर रहे हैं। यही नहीं, केजरीवाल यह बताने में भी नहीं चूकते कि वे जनता को जो मुफ्त की रेवडि़यां बांट रहे हैं वह इसलिए संभव हो पा रहा है कि उन्होंने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया है, बिचैलियों की भूमिका खत्म की है और इस तरह जो पैसा बच रहा है उसे वे जनकल्याण पर खर्च कर रहे हैं।

वे बड़े गर्व से कहते हैं कि मुफ्त की इन सारी सुविधाओं के बावजूद दिल्ली सरकार घाटे में नहीं है, तो यह एक बड़ी उपलब्धि है। इस पूरे युद्ध में कांग्रेस कहीं दिखाई नहीं देती। इस सबके बावजूद कांग्रेस की महत्ता बनी हुई है क्योंकि लोकसभा में विपक्ष के नेता का तमगा हासिल करने योग्य भी सीटें न ला पाने के बावजूद कांग्रेस अकेला राष्टीय राजनीतिक दल है जो लगभग सभी राज्यों में मौजूद है। यही नहीं, चुनाव में बेतरह मुंह की खाने के बावजूद बुरी से बुरी स्थिति में भी कांग्रेस को मिलने वाले वोटों का प्रतिशत बीस से नीचे नहीं गिरा है। बीस प्रतिशत वोटों की यह खूबी ही कांग्रेस की थाती है और यही कारण है कि भाजपा छोड़कर जाने वाले नेता आज भी सबसे पहले कांग्रेस की ओर ही भागते हैं। यही कारण है कि भाजपा से नाराज राजनीतिज्ञ चाहते हैं कि कांग्रेस मजबूत हो। सच तो यह है कि खुद ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल भी ऐसे राजनीतिज्ञों में शामिल हैं। आम आदमी पार्टी को छोड़ दें तो विपक्षी दलों के साथ जो सबसे बड़ी समस्या है, वह यह है कि उनके पास कोई नैरेटिव नहीं है, मुफ्त की सुविधाएं देने के अलावा कोई सुविचारित और सिस्टेमैटिक रणनीति नहीं है, नीतिविहीनता की यह स्थिति विपक्ष की सबसे बड़ी कमजोरी है और भाजपा को इसका लाभ मिल ही रहा है, मिलता भी रहेगा। राम मंदिर और हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा तो भाजपा के तरकश में है ही, उसने बड़ी चालाकी से अपने नैरेटिव में विकास का मुद्दा फिर से शामिल कर लिया है और भाजपा का आईटी सेल लगातार ऐसे संदेश प्रसारित कर रहा है जो हिंदू जनमानस को प्रभावित करते हैं। सोशल मीडिया पर भाजपा का वर्चस्व है।

उसके पास कर्त्तव्यनिष्ठ कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज है और भाजपा के विभिन्न संदेशों को आगे बढ़ाने वाले लोगों का बड़ा प्रतिशत ऐसे लोगों का है जो भाजपा के प्राथमिक सदस्य भी नहीं हैं। आम आदमी पार्टी के शुरुआती दिनों में केजरीवाल का प्रभामंडल भी कुछ ऐसा ही था, उनकी प्रेरणा भी कुछ ऐसी ही थी कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों में बड़े पदों पर आसीन लोगों ने भी अपनी नौकरियां छोड़कर आम आदमी पार्टी का प्रचार किया था। भाजपा को विदेशों से मिलने वाला चंदा और समर्थन भी भाजपा की बड़ी शक्ति है। यही समर्थन जब किसी विपक्षी दल को मिलता है तो खालिस्तानियों और आतंकवादियों का डर दिखाकर भाजपा उसे देशद्रोह के रूप में पेश करती है। इस सबके बावजूद यह भी एक सच है कि भाजपा नेतृत्व कोई जोखिम लेने की स्थिति में नहीं है। पिछले चुनावों में चारों खाने चित्त हो जाने के बावजूद उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी दोबारा मजबूती की ओर कदम बढ़ा रही है। अभी यह कहना तो मुश्किल है कि अखिलेश की नई घोषणाएं उन्हें कितनी सीटें दिलवा पाएंगी, पर यह तो स्पष्ट है ही कि उत्तर प्रदेश में एक बार फिर धर्म के नाम के साथ जाति की महत्ता रहेगी और गैर-हिंदू वोट संगठित होकर समाजवादी खेमे को मजबूत कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त अनुसूचित जातियों का मतदाता भी भाजपा से छिटक रहा है।

विभिन्न केंद्रीय एजेंसियों से खौफ खाई हुई मायावती इस समय लगभग अप्रासंगिक हैं। मायावती की इस कमजोरी का लाभ भी अखिलेश यादव को मिल रहा है। सन् 1985 के लोकसभा चुनावों में जब राजीव गांधी ने अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस की सबसे बड़ी जीत दर्ज की थी तो भाजपा कहीं भी दिखाई नहीं देती थी। एनटी रामाराव की तेलुगू देशम पार्टी एक राज्य में ही सीमित होने के बावजूद सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन आज भाजपा सबसे बड़ा राजनीतिक दल है और मोदी के नेतृत्व में लंबे समय के बाद दो बार के लोकसभा चुनावों में एक ही पार्टी को पूर्ण बहुमत भी मिला है। आंध्र प्रदेश में एक बार हारने के बाद तेलुगू देशम पार्टी सत्ता से बाहर हुई तो कांग्रेस ने लंबे समय तक राज किया। अपने पिता की विरासत के चलते आंध्र प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी को जब कांग्रेस ने भाव नहीं दिया तो चंद्रबाबू नायडू की लाटरी फिर लग गई और वे फिर से मुख्यमंत्री बने। अपने सारे अनुभव के बावजूद आम जनता से संपर्क के मामले में इस दौरान वे नौकरशाहों के चंगुल में रहे, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और सत्ता जगन मोहन रेड्डी की झोली में आ गई। कहा नहीं जा सकता कि राजनीति में कब किसकी किस्मत पलट जाए, इसलिए यह समझना गलत नहीं है कि आज जो दल कमजोर स्थिति में नजर आता है, कल वही फिर से सत्तासीन हो जाए। चुनावी बिगुल बज चुका है। देखना बाकी है कि राजनीति में सत्ता का ऊंट किस करवट बैठता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *