राजनैतिकशिक्षा

वसीम रिजवी प्रकरणः गांधीजी ने भी हिन्दू धर्म को सर्वश्रेष्ठ माना था

डॉ. प्रभात ओझा-

-:ऐजेंसी सक्षम भारत:-

उत्तर प्रदेश शिया वक्फ बोर्ड के पूर्व चेयरमैन वसीम रिजवी अंततः सनातनी हो गये। कहा जा रहा है कि उन्होंने इस्लाम धर्म छोड़कर हिन्दुत्व को अपना लिया है। वसीम रिजवी कहते हैं कि इस्लाम कोई धर्म ही नहीं है। पता नहीं वसीम साहब किस अर्थ में ऐसा कह रहे हैं। वैसे धर्म अपने आप में बहुत गूढ़ है और यह मानव धर्म तक जाता है।

याद करें कि वसीम रिजवी की किताब ‘मुहम्मद’ पर बहुत शोरशराबा हो चुका है। उसमें उन्होंने कुरान की 35 आयतों को आतंक भड़काने तक का जिम्मेदार बताया। पुस्तक के लिए उन्होंने विभिन्न धार्मिक ग्रंथों से कम से कम 350 संदर्भ लेने का दावा भी किया है। बहरहाल, जब वसीम रिजवी हिन्दुत्व अपनाने को सनातनी होना कहते हैं, हमें इस पर विचार करना चाहिए। इस अर्थ में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की याद आती है। आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में जब वसीम रिजवी ने नया कदम उठाया है, राष्ट्रपिता गांधीजी का कथन याद करें।

वैसे, गांधीजी ने धर्म पर बहुत कुछ कहा है। यहां संदर्भित कथन इस प्रकार है- “मैं समझा दूं कि धर्म से मेरा क्या मतलब है। मेरा मतलब हिंदू धर्म से नहीं है, जिसकी मैं बेशक और धर्मों से ज्यादा कीमत आंकता हूं। मेरा मतलब उस मूल धर्म से है जो हिंदू धर्म से कहीं उच्चतर है, जो मनुष्य के स्वभाव तक का परिवर्तन कर देता है, जो हमें अंतर से सत्य से अटूट रूप से बांध देता है और जो निरंतर अधिक शुद्ध और पवित्र बनाता रहता है। वह मनुष्य की प्रकृति का ऐसा स्थायी तत्व है जो अपनी संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहता है और उसे तब तक बिल्कुल बेचैन बनाए रखता है, जब तक उसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं हो जाता तथा स्रष्टा के और अपने बीच का सच्चा संबंध समझ में नहीं आ जाता।” (गांधी वाञ्मय-17/442)

प्रश्न है कि क्या वसीम रिजवी ने गांधीजी की तरह हिन्दू धर्म को इसलिए अपनाया है, क्योंकि गांधीजी के ही शब्दों में उसकी ‘ बेशक और धर्मों से ज्यादा कीमत’ है। ध्यान दें कि हिन्दू धर्म की और धर्मों से ज्यादा कीमत बताकर भी गांधीजी कहते हैं कि ऐसा एक भी धर्म नहीं है जो संपूर्णता का दावा कर सके। वे धर्मों की तुलना करना अनावश्यक समझते थे। उनकी मान्यता है कि अधर्म तो मनुष्य जैसी अपूर्ण सत्ता द्वारा मिलता है, अकेला ईश्वर ही संपूर्ण है। इसलिए हमें अपने धर्म को प्रौढ़ मान कर दूसरे धर्मों को समझने की कोशिश करनी चाहिए। इसलिए गांधीजी हिन्दू होने के कारण अपने लिए हिन्दू धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए भी यह नहीं कह सकते कि हिन्दू धर्म सबके लिए सर्वश्रेष्ठ है और इस बात की तो स्वप्न में भी आशा नहीं रखते कि सारी दुनिया हिन्दू धर्म को अपनाये। इसी तरह गांधीजी ईसाइयों और मुसलमानों से यह अपेक्षा रखते हैं कि वे इस्लाम और ईसाई धर्म को समूचे विश्व का धर्म बनाने का सपना और उस दिशा में किए जा रहे अपने प्रयत्नों को छोड़कर, स्वधर्म का पालन करते हुए अन्य धर्मावलंबियों की मदद करें।

निश्चित ही गांधीजी तब मिशनरियों की ओर से किए जा रहे धर्म परिवर्तन की कोशिश को सही नहीं ठहराते। वे स्वेच्छा से किसी भी मतावलंबी के अपनी आस्था बदलने को भी गलत नहीं कहते। आज देखा जाय तो वसीम रिजवी के हिन्दुत्व अपनाने के पीछे भी किसी संगठन का दबाव नहीं है। वे बहुत पढ़े-लिखे हैं। उन्होंने अपनी इच्छा से ही ऐसा किया है। अपनी पुस्तक पर शोरशराबा होने पर भी उन्होंने कहा था, “असदुद्दीन ओवैसी (एआईएमआईएम प्रमुख) ही हमारे खिलाफ एफआईआर करवा रहा है तो भाई एफआईआर करवाने से क्या मतलब हुआ ? हमने तुम्हारी किताबों के हवाले से किताब लिखा तो उन किताबों के हवाले से जवाब दे दो। अपने में इंसानियत पैदा कर लो, तुम इंसानियत का मजहब अख्तियार कर लो, हम अपनी किताब को वापस ले लेंगे।”

पता नहीं, यह किताब लिखने और उसे वापस लेने की बहस भी इस मामले में कहां तक चलेगी। फारसी के प्रसिद्ध विद्वान हाफिज शिराजी जैसे लोग तो बिरले ही होते हैं, जो सर्वधर्म समभाव पर जोर देते हैं। वे कहते हैं कि खुदा से मिलने की ख्वाहिश है तो सभी से मुहब्बत करो। वसीम रिजवी इस दिशा में कहां तक जाएंगे, अभी से कहा नहीं जा सकता। फिलहाल, उनके कदम में राजनीति देखी जायेगी। ऐसा देखना और कहा जाय तो करना भी गलत नहीं है, बशर्ते गांधीजी का ध्यान रखें। बापू ने तो बार-बार और साफ तौर पर कहा था कि उनकी राजनीति भी धर्म का ही हिस्सा है। उनके शब्दों में, “मेरे बहुत से राजनीतिक मित्र मेरी आशा इसलिए छोड़ बैठे हैं कि उनका कहना है कि मेरी राजनीति भी मेरे धर्म से ही उद्धृत है और उनका यह कहना सही है। मेरी राजनीति तथा अन्य तमाम प्रवृत्तियों का स्रोत मेरा धर्म ही है। मैं तो इससे भी आगे बढ़कर यह कहूंगा कि धर्मपरायण व्यक्ति की प्रत्येक प्रवृत्ति का स्रोत ही धर्म होना चाहिए।” (गांधी वांग्मय/57-214)।

राजनीति में गांधी बहुतों के आदर्श हो सकते हैं। यहां मात्र धर्म और राजनीति के मामले में उनके विचार वसीम रिजवी के हिन्दुत्व अपनाने के संदर्भ में लिया गया है। उम्मीद है कि गांधीजी के कट्टर हिन्दू होते हुए राजनीति को भी उसी का अंग मानने को ध्यान में रखा जायेगा। इस पर भी विचार करना चाहिए कि आखिर गांधीजी हिन्दू धर्म को दूसरे मतों से श्रेष्ठ क्यों मानते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *