राजनैतिकशिक्षा

चीन में मुस्लिम, तिब्बती व ईसाइयों के अंगों का घृणित कारोबार

-प्रमोद भार्गव-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

चीन के शिनजियांग प्रांत में बंधक बनाकर रखे गए पंद्रह लाख से ज्यादा उईगर मुस्लिम और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक हैवानियत का शिकार हो रहे हैं। इस क्रूरतम रहस्य का पर्दाफाश संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग द्वारा जारी रिपोर्ट में किया गया है।

चीन में अल्पसंख्यक उईगर, तिब्बती और ईसाईयों के अंग जबरदस्ती निकालकर जरूरतमंद देशों को कालाबाजारी करके अरबों रुपए कमाए जा रहे हैं। यह रिपोर्ट आस्ट्रेलिया में प्रकाशित हुई है।

रिपोर्ट के अनुसार हिरासत में रखे गए अल्पसंख्यकों का यकृत 1 करोड़ 2 लाख रुपए में, गुर्दा 60 लाख, हृदय 80 लाख और आंख का नेत्रपटल (कॉर्निया) 20 लाख रुपए में मानव अंगों का अवैध व्यापार करने वालों को बेचे जा रहे हैं। इन हिरासत केंद्रों में अंग निकालने के आरोप पहले भी अनेक मर्तबा लगे हैं। यही नहीं इस रिपोर्ट में कहा गया है कि उईगर और अन्य अल्पसंख्यकों की जबरन नसबंदी भी करा दी जाती है।

जिन अस्पतालों में अंगों को निकाला जाता है, वे सभी अस्पताल हिरासत केंद्रों के निकट हैं। अस्पतालों में किए गए ऑपरेशनों की संख्या और प्रतीक्षा सूची से पता चला है कि यहां बड़े पैमाने पर जबरन अंग निकाले जा रहे हैं। रिपोर्ट में ऑस्ट्रेलियाई रणनीतिक नीति संस्थान (एएसपीआई) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा गया है कि 2017 से 2019 के बीच देशभर के कारखानों में लगभग 80 हजार उईगरों की तस्करी की गई है। साथ ही इनकी 6.3 लाख करोड़ रुपए की संपत्ति जब्त की गई है। इन्हें धार्मिक अनुष्ठानों में बमुश्किल भागीदारी करने दी जाती है। बावजूद पाकिस्तान समेत दुनिया के अन्य मुस्लिम पैरोकार देश चीन के विरुद्ध ओंठ सिले हुए हैं।

चीन में उईगरों पर जुल्म का सिलसिला नया नहीं है। वह नए-नए तरीकों से उईगरों को इतना सता रहा है कि हिरासत केंद्र, यातना घरों में बदल गए हैं। चीन मुस्लिमों के धार्मिक प्रतीकों पर भी लगातार पाबंदी लगा रहा है। यहां के पश्चिमी क्विनगाई प्रांत के शिनिंग शहर में मौजूद डोंगगुआंग मस्जिद के गुंबद और मीनारों को हटा दिया गया है। चीन में मौजूद मस्जिदों के इस्लामिक वास्तुशिल्प को वहां की वामपंथी सरकार चाइनीज स्थापत्य में ढालने का उपक्रम करने में लगी है। इस बदलाव के सिलसिले में सरकार का कहना है कि यह सब इसलिए जरूरी हो गया है, ताकि मस्जिदों पर मध्यपूर्व एशिया का कथित इस्लामीकरण न दिखे और ये स्मारक चाइनीज लगें। इस बदलाव की शुरुआत 1990 के दशक में जिनपिंग के कार्यकाल में शुरू हुई थी। तभी से गुंबद और मीनारों को हटाया जा रहा है। वर्तमान राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने इस परिवर्तन के अभियान को ‘सांस्कृतिक एकीकरण’ का नाम दिया हुआ है। इसके अंतर्गत ईसाई धर्म और संस्कृति को भिन्न पहचान देने वाले स्मारकों के प्रतीकों को भी हटाया जा रहा है।

दरअसल चीन को उईगर बहुल क्षेत्र में अनेक बार विरोध का सामना करना पड़ा है। इसलिए चीन सख्ती से इनके दमन में लगा हुआ है। यही हश्र चीन तिब्बतियों के साथ भी कर रहा है। चीन ने मंगोलिया प्रांत के जिन विद्यालयों में तिब्बती छात्र बहुसंख्यक हैं, वहां केवल मंदारिन भाषा में पढ़ाई अनिवार्य कर दी है। चीन के शिनिंग शहर में पिछले 1300 साल से हुई मुस्लिम रह रहे हैं। इनकी आबादी लगभग 1 करोड़ हैं। चीन ने इसे सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस ने जो मॉडल अपनाया है, उसे चीन में लागू करके धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को 54 वर्गों में बांटकर न्यूनतम धार्मिक आजादी दी हुई है, जिससे इनकी शक्ति विभाजित होकर बिखर जाए। हालांकि जब हुई मुस्लिम चीनी क्षेत्र में बसना शुरू हुए थे, तब उन्होंने आक्रामकता दिखाते हुए बौद्ध मंदिरों पर कब्जा किया और उन्हें इस्लामिक रूप देकर मस्जिदें बना दीं।

चीनी इतिहास के अनुसार 616-618 के कालखंड में चीन में तांग राजवंश के शासक रहे थे। बौद्ध धर्मावलंबी होने के कारण ये हिंदूओं की तरह उदार थे। लिहाजा इस कालखंड में जब अरब और ईरानी व्यापारी चीन व्यापार के लिए आए तो उन्हें तांग राजाओं ने व्यापार के साथ-साथ अपने धर्म इस्लाम के प्रचार की छूट भी दे दी। एक तरह से यह वही गलती थी, जो भारतीय सामंतों ने मुस्लिम और अंग्रेजों के भारत आने पर की थी। इसका नतीजा निकला कि चीन में उईगर, हुई, उजबेक, ताजिक, कजाक, किरगीज और तुर्क आकार रहने लगे। ये सभी मध्य एशिया से आए थे। इन्होंने इस्लाम के प्रचार के बहाने चीनीयों का धर्म परिवर्तन भी किया और चीनी महिलाओं से शादियां भी कीं। नतीजतन चीन में मुसलमानों की संख्या दो करोड़ से भी ऊपर पहुंच गई और ये स्थानीय मूल निवासियों के लिए संकट बन गए।

वर्तमान में चीन में करीब सवा करोड़ उईगर मुसलमान हैं। कालांतर में इन मुसलमानों ने अलग स्वतंत्र देश तुर्किस्तान की मांग शुरू कर दी। इस हिंसक आंदोलन को नेस्तनाबूद करने के लिए चीन की च्यांगकाई और माओ-त्से-तुंग की कम्युनिष्ठ सरकारों ने लाखों की संख्या में आंदोलनकारियों को मौत के घाट उतार दिया। चीन ने यही हश्र तिब्बतियों के साथ किया। तिब्बती और मुस्लिम औरतों को यहां बांझ बनाने का काम भी किया जा रहा है। हैरानी इस बात पर है कि पाकिस्तान समेत अन्य मुस्लिम देश चीन के इन धत्कर्मों की निंदा करने से भी बचते हैं।

इन सब अत्याचारों के बावजूद चीन संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् (यूएनएचआरसी) में चुन लिया जाता है। इससे संकेत मिला है कि संयुक्त राष्ट्र ने मानवाधिकारों के शोषकों के आगे घुटने टेक दिए हैं। इसीलिए यह वैश्विक संगठन मानवाधिकारों की लड़ाई चीन जैसे देशों के खिलाफ सख्ती से नहीं लड़ पा रहा है। यही नहीं चीन के समर्थन के बूते पाकिस्तान और नेपाल भी परिषद् के सदस्य चुन लिए गए। रूस और क्यूबा जैसे अधिनायकवादी देश भी इस परिषद् के सदस्य हैं। इस कारण यूएनएचआरसी की विश्वसनीयता लगातार घट रही है। इसीलिए अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने बयान दिया था कि ऐसे हालातों के चलते परिषद् से अमेरिका के अलग होने का फैसला उचित है।

दरअसल जब अमेरिका ने परिषद् से बाहर आने का ऐलान किया था, तब संयुक्त राष्ट्र ने सदस्य देशों से परिषद् में तत्काल सुधार का आग्रह किया था। परंतु किसी ने कोई ध्यान नहीं दिया। आज स्थिति यह है कि अधिकतम मानवाधिकारों का हनन करने वाले देश इसके सिरमौर बन बैठे हैं। पाकिस्तान में हिंदुओं और ईसाइयों के साथ-साथ अहमदिया मुस्लिमों पर निरंतर अत्याचार हो रहे हैं। बांग्लादेश में भी हिंदुओं पर जुल्म ढाए जा रहे हैं। उनके धार्मिक स्थल नष्ट करने की खबरें रोज-रोज आ रही हैं। वहीं, चीन ने तिब्बत को तो लगभग निगल ही लिया है। म्यांमार की सेना ने करीब 15 लाख रोहिंग्या मुस्लिमों को बंदूक की नोक पर अपने देश से रातोंरात बेदखल कर दिया। इस घटना को करीब पांच साल बीत चुके हैं, लेकिन कहीं से कोई आवाज म्यांमार के विरुद्ध नहीं उठी। मानवाधिकार आयोग भी मौन है।

चीन के साम्राज्यवादी मंसूबों से वियतनाम चिंतित है। हांगकांग में वह इकतरफा कानूनों से दमन की राह पर चल रहा है। इधर, चीन और कनाडा के बीच भी मानवाधिकारों के हनन को लेकर तनाव बढ़ना शुरू हो गया है। भारत से सीमाई विवाद तो सर्वविदित है ही। लोक-कल्याणकारी योजनाओं के बहाने चीन छोटे से देश नेपाल को भी तिब्बत और चैकोस्लोवाकिया की तरह निगलने की फिराक में है। चीन ने श्रीलंका के हंबन तोता बंदरगाह को विकसित करने के बहाने, उसे हड़पने की ही कुटिल चाल चल दी है। श्रीलंका चीन के इन दोगले मंसूबों को बहुत देर बाद समझ पाया। नतीजतन अब चीन के चंगुल से बाहर आने के लिए छटपटा रहा है। जाहिर है, चीन वामपंथी चोले में तानाशाही हथकंडे अपनाते हुए हड़प नीतियों को लगातार बढ़ावा दे रहा है।

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