अमेरिका, भारत-रूस और तेल व्यापार : इसे इस नजरिए से भी दखिए!
-डॉ. मयंक चतुर्वेदी-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
आज की दुनिया में ऊर्जा सिर्फ एक वस्तु नहीं है, बल्कि हर देश की आर्थिक रीढ़ और सामरिक शक्ति का आधार है। तेल और गैस वैश्विक राजनीति के सबसे अहम औज़ार बन चुके हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद पश्चिमी देशों ने रूस पर कड़े प्रतिबंध लगाए, लेकिन इसने रूस को रोकने के बजाय उसे नए बाज़ारों की ओर मोड़ दिया। भारत और चीन जैसे बड़े उपभोक्ता देशों के लिए यह एक अवसर बनकर आया। भारत, जो दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक है, उसने रूस से रिकॉर्ड स्तर पर सस्ता कच्चा तेल खरीदना शुरू किया। आज यही बात अमेरिका को खटक रही है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 25% से बढ़ाकर 50% तक अतिरिक्त टैरिफ लगाया है, सिर्फ इसलिए कि भारत अपनी जनता और उद्योग को रूस से सस्ता तेल खरीदकर राहत दे रहा था। जबकि चीन, जो रूस का सबसे बड़ा तेल खरीदार है, उस पर अमेरिका ने अपेक्षाकृत नरमी बरती। यही नहीं, चीन के रिफाइनर रूस से पश्चिमी हिस्से का यूराल तेल खरीदकर और भी फायदा उठा रहे हैं। अगस्त 2025 के आँकड़ों के अनुसार, चीन ने लगभग 75,000 बैरल प्रतिदिन यूराल तेल खरीदा, जबकि उसका औसत पहले 40,000 बैरल था। दूसरी तरफ, भारत का आयात घटकर 4 लाख बैरल प्रतिदिन रह गया, जबकि पहले यह 11.8 लाख बैरल प्रतिदिन था।
आज भारत के लिए रूस से तेल खरीदने के पीछे दो प्रमुख कारण हैं। पहला, कीमत। जब पश्चिमी देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगाए, तो रूस ने तेल पर भारी छूट देनी शुरू की। 2022–23 में रूस भारत को 20 लाख बैरल प्रतिदिन तक तेल बेच रहा था, और यह तेल मध्य पूर्व की तुलना में 20–30 डॉलर प्रति बैरल सस्ता था। दूसरा कारण है ऊर्जा सुरक्षा। भारत की कुल ऊर्जा खपत का 85% हिस्सा आयात से आता है। ऐसे में सस्ती सप्लाई पाना भारत के लिए सिर्फ विकल्प नहीं बल्कि आवश्यकता थी। अगर अमेरिका यह कहता है कि भारत रूस से सस्ता तेल खरीदकर मुनाफा कमा रहा है, तो इसमें गलत क्या है? क्या अमेरिका की तेल कंपनियाँ केवल मानव सेवा के लिए काम करती हैं? क्या अमेरिकी शेल ऑयल इंडस्ट्री सिर्फ घाटे में चलाने के लिए बनाई गई है? बिल्कुल नहीं। दुनिया का हर देश और हर कंपनी मुनाफे के लिए ही काम करती है, फिर भारत के मुनाफे पर अमेरिका की आपत्ति क्यों?
व्हाइट हाउस के सलाहकार पीटर नवारो ने भारत की तेल खरीद को “opportunistic and very bad” कहा। वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने तो यहाँ तक कह दिया कि भारत रूसी तेल खरीदकर सिर्फ अमीर भारतीय परिवारों को फायदा पहुँचा रहा है। उन्होंने दावा किया कि भारत ने 16 बिलियन डॉलर का अतिरिक्त मुनाफा कमाया है। लेकिन अगर यही तर्क मान लिया जाए, तो अमेरिका की शेल गैस कंपनियाँ, तेल निर्यातक, हथियार निर्माता और फार्मा कंपनियाँ भी तो मुनाफा ही कमा रही हैं। तो फिर भारत के मुनाफे पर इतनी तकलीफ क्यों? असलियत यह है कि अमेरिका दुनिया की ऊर्जा राजनीति पर अकेले अपना दबदबा बनाए रखना चाहता है।
यहाँ यह भी समझना जरूरी है कि भारत की रूस पर निर्भरता कोई स्थायी नहीं है, बल्कि व्यावहारिक है। भारत 2021 तक रूस से अपनी ज़रूरत का केवल 1% से भी कम तेल खरीदता था। लेकिन पश्चिमी प्रतिबंधों के बाद रूस ने डिस्काउंट देना शुरू किया और भारत ने इसका फायदा उठाया। इससे भारतीय जनता को महंगे पेट्रोल-डीज़ल से कुछ राहत मिली और रिफाइनरी कंपनियों को भी प्रतिस्पर्धी बढ़त मिली। लेकिन जैसे ही अमेरिका ने दबाव बनाया और टैरिफ बढ़ाया, भारत की खरीद कम हो गई। परिणाम यह हुआ कि चीन ने यह अवसर तुरंत लपक लिया और रूस से ज्यादा तेल खरीदना शुरू कर दिया। क्या अमेरिका को इस पर आपत्ति है? नहीं। क्यों? क्योंकि चीन से टकराने की अमेरिका की हिम्मत नहीं है।
अमेरिका की नीति का एक और पहलू यह है कि वह भारत पर दबाव डालकर अपने तेल को बेचने का रास्ता साफ करना चाहता है। आंकड़े बताते हैं कि 2025 की पहली छमाही में भारत का अमेरिका से तेल आयात 51% बढ़कर 2.71 लाख बैरल प्रतिदिन तक पहुँच गया था, सबसे बड़ी बात यह है कि यह वृद्धि 2024 की पहली छमाही में 1.8 लाख बैरल प्रति दिन की तुलना में काफी अधिक है, फिर भी उसका मन नहीं भर रहा है। यानी, अमेरिका चाहता है कि भारत किसी भी सूरत में रूस से तेल न खरीदे और मजबूरी में उससे खरीदे। यह एक प्रकार का आर्थिक ब्लैकमेल है। भारत को सस्ते विकल्प छोड़कर महंगे विकल्प अपनाने के लिए मजबूर करना किसी भी तरह न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता।
भारत सरकार ने अमेरिका की इस नीति का विरोध भी किया है। विदेश मंत्रालय ने कहा है कि भारत की तेल खरीद जरूरत के हिसाब से है, और पश्चिमी देश खुद भी रूस से कुछ व्यापार जारी रखे हुए हैं। यानी, जो काम अमेरिका और यूरोप खुद करें तो सही, लेकिन भारत करे तो गुनाह। भारत ने साफ कर दिया है कि वह अपनी जनता को सस्ता ऊर्जा स्रोत देने के लिए हर संभव कदम उठाएगा। यही भारत का अधिकार है और यही किसी भी संप्रभु राष्ट्र की स्वतंत्रता का हिस्सा है। आज जिस तरह के आंकड़े सामने आ रहे हैं, उससे पता चलता है कि रिलायंस इंडस्ट्रीज और अन्य निजी कंपनियाँ भी रूस से तेल खरीदकर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोलियम उत्पाद बेच रही हैं। इससे भारत को विदेशी मुद्रा आय हुई है। अगर चीन यही काम करे तो उसे “व्यापारिक चतुराई” कहा जाता है, लेकिन भारत करे तो उसे “खतरनाक” कहा जाता है। यह भेदभाव अब दुनिया की नज़र से छिपा नहीं है।
वस्तुोत: अमेरिका यह चाहता है कि ऊर्जा संसाधनों का उपयोग उसकी विदेश नीति के औज़ार के रूप में हो। रूस को कमजोर करना, चीन को नियंत्रित करना और भारत को अपने खेमे में बनाए रखना, यह उसकी रणनीति है। लेकिन नया विश्व, जिसे हम Global South कहते हैं, अब इस दबाव को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है। भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसे देश अब बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं। इन देशों की आवाज़ अब संयुक्त राष्ट्र और जी-20 जैसे मंचों पर गूंज रही है। तेल पर प्रतिबंध लगाना या टैरिफ के माध्यम से दबाव बनाना वास्तव में विकासशील देशों को पीछे धकेलना है। ऊर्जा के बिना विकास असंभव है। यदि भारत को सस्ता तेल रूस से मिलता है, तो इससे उद्योग को राहत मिलेगी, महंगाई नियंत्रित होगी और विकास तेज़ होगा।
अमेरिका का यह कहना कि भारत मुनाफा कमा रहा है, दरअसल उसकी अपनी खीझ का परिणाम कहा जा सकता है। अमेरिका को आज यह स्वीकार करना होगा कि हर देश अपने हित में काम करता है। भारत का रूस से तेल खरीदना न तो अनुचित है और न ही गैरकानूनी। यह पूरी तरह व्यावहारिक और आवश्यक कदम है। इसलिए अमेरिका को भारत की तेल खरीद पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।