आम आदमी पार्टी की हार के मायने
-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
दिल्ली में अंतत: आम आदमी पार्टी का दुर्ग ध्वस्त हो गया। यह भी कहा जा सकता है कि उसका शीशमहल टूट गया। आम आदमी पार्टी, जिसे बाद में केवल ‘आप’ से संबोधित किया जाने लगा था, का जन्म 2014 के उस संक्रमण काल में से हुआ था जब देशी-विदेशी शक्तियों को लगभग यह निश्चय हो गया था कि अब सोनिया गान्धी के प्रत्यक्ष-परोक्ष नेतृत्व को किसी भी तरह भारत की सत्ता के शिखर पर बिठाए रखना संभव नहीं है। उस समय यह आभास भी होने लगा था कि कांग्रेस के पतन से हुए शून्य को भारतीय जनता पार्टी भर सकती है। भारतीय जनता पार्टी के सत्ता के शिखर पर पहुंचने की सम्भावना को केवल सत्ता हस्तांतरण ही नहीं कहा जा सकता था। यह भारत में एक नए वैचारिक मंथन का उदय भी हो सकता था। कांग्रेस के अवसान से उत्पन्न होने वाले शून्य को कम्युनिस्ट शक्तियां भरने में सक्षम होतीं तो शायद इतना हंगामा होने की सम्भावना न होती, परन्तु भाजपा के आने का अर्थ तो स्पष्ट ही भारत का अपनी जड़ों की तलाश की ओर अग्रसर होना था। सभ्यताओं के संघर्ष में यह नया पक्ष किसी को भी सूट नहीं करता था। इसलिए जल्दी और हड़बड़ाहट में सीजेरियन आप्रेशन से आम आदमी पार्टी का जन्म करवाया गया। सबसे बड़ी होशियारी यह थी कि सुदूर महाराष्ट्र से अन्ना हजारे को किसी तरह दिल्ली में बुला लिया गया। उनके व्यक्तित्व का हर तरीके से लाभ उठाने की यह छलभरी रणनीति थी। आज तक इसके लिए अन्ना हजारे पछता रहे हैं। अपने साथ हुए इस छल का धक्का इतना गहरा था कि अन्ना हजारे आज दिल्ली विधानसभा के चुनाव में ‘आप’ की पराजय पर अपने हर्ष को रोक नहीं पाए। आम आदमी पार्टी को भारत की राजनीति में लाने वाली देशी-विदेशी शक्तियां कौन थीं, इसको लेकर आज भी बहस होती रहती है।
अमेरिका के किस फाऊंडेशन ने एनजीओ बनाने में कितना पैसा दिया, इसको लेकर जितने मुंह उतनी बातें। इसी एनजीओ के पेट से आपात स्थिति देख कर आम आदमी पार्टी का जन्म करवाया गया था। जाहिर है इस प्रकार के सीजेरियन पद्धति से जन्मी पार्टी की सत्ता हथियाने के सिवा कोई विचारधारा हो ही नहीं सकती थी। तभी यह कहा जाता है कि आम आदमी पार्टी पहली ऐसी राजनीतिक पार्टी है जो सार्वजनिक रूप से कहती है कि उसकी कोई विचारधारा नहीं है। लेकिन हैरानी की बात है कि बिना किसी विचारधारा और संगठन के वाबजूद यह पार्टी दिल्ली की सत्ता पर दस साल तक कैसे टिकी रही। उसका मुख्य कारण था अन्ना हजारे के कारण बनी आम आदमी पार्टी की छवि। बदलाव की राजनीति की टोपी, गले में मफलर, दुख की खांसी इत्यादि सभी ने मिल कर ऐसा जबरदस्त काकटेल तैयार किया कि उसके बलबूते दिल्ली तो क्या, अकाली दल और कांग्रेस से त्रस्त पंजाब के लोग भी गच्चा खा गए। सत्ता में एक बार तो आया जा सकता है, लेकिन जिस छवि के सहारे लोगों को भ्रमित किया गया था, उस कृत्रिम छवि को लंबी दूरी तक बनाए रखना तो इतना आसान नहीं होता। रंग कच्चा हो तो पहली ही बरसात में उतरने लगता है। महत्वाकांक्षाएं योग्यता से भी बड़ी हों तो उसे देशी-विदेशी धन से पूरा करने की तमन्ना जागृत होती है। इसी में से दिल्ली का शराब घोटाला निकला जिसने गरीबों को ‘दारू की एक बोतल के साथ एक मुफ्त में’ का लालच देकर सामाजिक व पारिवारिक वातावरण दूषित किया। लेकिन दारू के इस पैसे से केजरीवाल ने अपनी राजनीति और महत्वाकांक्षा के पंख पसारने के प्रयास किए। लेकिन काले धन के पंखों पर भला छोटा शरीर कितना उड़ पाता? अलबत्ता दारू की फुहारें पार्टी पर इस कदर पड़ीं कि उसकी बदबू ने आधी पार्टी केजरीवाल समेत जेल में पहुंचा दी। परंतु केजरीवाल केवल शराब घोटाले के फ्रंट पर ही तो सक्रिय थे। अपने ही साथियों पर आतंक जमाने के लिए उन्होंने दिल्ली सरकार के पैसे से करोड़ों रुपए खर्च करके उससे शीशमहल बना लिया। उसमें अपने ही लोगों की पिटाई के नए अध्याय की शुरुआत करके राजनीति का रुख बदलने की घोषणा की। स्वाति मालीवाल साहसी लडक़ी थी।
उसने शीशमहल में हुई अपनी पिटाई का शोर ही नहीं मचा दिया, बल्कि थाने में जाकर रपट भी लिखा दी। यदि वे ऐसा न करतीं तो न जाने पिटाई के माध्यम से राजनीति का विस्तार और नियंत्रण करने का यह नया प्रयोग कितनी देर तक चलता रहता। जहां तक दिल्ली में कामकाज का सवाल था, उसके लिए जमीन की बजाय सोशल मीडिया से ही काम चलाया गया। यही कारण था कि केजरीवाल सरकार का कामकाज सोशल मीडिया पर तो बाकायदा दिखता था. लेकिन जमीन पर नदारद था। उसकी कमी केजरीवाल नरेंद्र मोदी को गाली वगैरह देने से पूरा करते थे। केजरीवाल को लगता था कि यदि वे सीधे नरेंद्र मोदी को गाली देंगे तो मान लिया जाएगा कि भारत की राजनीति में असल मुकाबला तो मोदी और केजरीवाल का है। बाकी पार्टियां तो सहायक की भूमिका में हैं। कुछ मोदी की सहायक हैं और कुछ केजरीवाल की सहायक हैं। यही कारण था कि वे कर्मकांडी की तरह दिन में एक-दो बार उच्च स्वर से घोषणा करते थे कि मोदी यदि किसी से डरता है, तो आम आदमी पार्टी से ही डरता है। लेकिन कुल मिला कर केजरीवाल के खेमे में शोर शराबा व गाली गलौज ही था। वे उसी के बलबूते जीतना चाहते थे। वे किसी कुशल जादूगर की तरह दिल्ली की जनता को एक कबूतर से दो-दो, तीन-तीन कबूतर उड़ा कर दिखा रहे थे और उन्हें बच्चा ही समझ कर जोर-जोर से ताली बजाने के लिए भी कह रहे थे। दिल्ली की जनता के सामने ऐसे कबूतर थे जो दिखाई तो दे रहे थे, लेकिन जब वे उन्हें छूने की कोशिश करते थे तो स्पर्श नहीं हो पा रहे थे। वे दिल्ली की जनता को यही कबूतर खरीदने की विज्ञापनों के माध्यम से बार-बार अपील कर रहे थे।
यही काल्पनिक कबूतर बेचने के लिए उन्होंने पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान को भी लगा रखा था। वे बेचारे महीने भर से दिल्ली की टूटी-फूटी सडक़ों पर खड़े होकर चिल्ला रहे थे कि केजरीवाल ने दिल्ली की सडक़ों को शानदार बना दिया है। भगवंत मान इसलिए जरूरत से भी ज्यादा चिल्ला रहे थे क्योंकि उनको डर था कि यदि केजरीवाल का डेरा दिल्ली से उठ गया तो वे पंजाब में ही अपना तंबू लगा कर न बैठ जाएं। लेकिन कहा जाता है, ‘बहुती देर नहीं चल्लदा डेरा पाखंडी साध दा। ’ और वह सचमुच उखड़ गया। भारत की राजनीति में शायद किसी पार्टी की पहली पराजय है जिस पर उस पार्टी के मित्र व शत्रु एक साथ खुशी मना रहे हैं। बादल अकाली दल के सर्वेसर्वा परमजीत सिंह सरना दिल्ली में खुल कर आम आदमी पार्टी की मदद कर रहे थे, लेकिन केजरीवाल के हारने पर खुशी की तालियां सुखबीर सिंह बादल बजा रहे थे। कांग्रेस के सुखपाल सिंह ने तो बाकायदा लड्डू बांटे, जबकि दोनों पार्टियां इंडिया गठबंधन का हिस्सा हैं। लेकिन असली सवाल है कि क्या आम आदमी पार्टी इस हार के बाद खड़ी हो पाएगी या फिर अपने ही शीशमहल में दफन हो जाएगी? इसका उत्तर पंजाब में आम आदमी पार्टी से मिलेगा। यदि केजरीवाल की हार के बाद भी पार्टी फूट कर खंड-खंड होने से बच गई तो भविष्य में आशा रखी जा सकती है, लेकिन उसके लिए उसे केजरीवाल के स्थान पर किसी नए नेता की तलाश करनी होगी क्योंकि केजरीवाल का मुलम्मा उतर चुका है। खोया हुआ जनाधार वापस पाने के लिए केजरीवाल को काफी कुछ करना होगा।