राजनैतिकशिक्षा

चुनावी पारदर्शिता का अभाव लोकतंत्र बनाम राजतंत्र

-सनत जैन-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

भारत का लोकतंत्र, अपनी विविधता और पारदर्शिता के लिए जाना जाता है। संविधान के अंतर्गत संवैधानिक संस्थाओं का गठन हुआ था न्यायपालिका संवैधानिक संस्थाओं विधायिका और कार्यपालिका के सभी कार्यों की संवैधानिक एवं कानूनी समीक्षा कर निर्णय देती थी लेकिन पिछले 10 वर्षों में धीरे-धीरे संवैधानिक संस्थाएं और न्यायपालिका सरकार के ऊपर निर्भर होती चली जा रही हैं, जिसके कारण वर्तमान में संविधान संवैधानिक संस्थाओं और लोकतंत्र को बचाए रखना बड़ा मुश्किल नजर आ रहा है। चुनाव आयोग आज सबसे ज्यादा सवालों के घेरे में है न्यायपालिका ने पिछले 10 वर्षों में जिस तरह से सरकार के पक्ष में निर्णय दिए हैं उसके कारण न्यायपालिका की विश्वसनीय और साख भी कमजोर हुई है अब तो लोकसभा और राज्यसभा की आसंदी भी विवादों के घेरे में है। ऐसी स्थिति में चुनाव प्रक्रिया, जो लोकतंत्र की रीड़ की हड्डी की तरह है, उसमें गड़बड़ी, पारदर्शिता की कमी और चुनाव आयोग को लेकर अविश्वास से लगातार चिंताएं बढ़ने लगी हैं। हाल ही में चुनाव आयोग और कानून मंत्रालय द्वारा जो नए संशोधन किए गए हैं। इन संशोधनों ने चुनाव आयोग की स्थिति को और अविश्वसनीय बना दिया है। विशेष रूप से हाल ही में कानून मंत्रालय द्वारा रूल 93/2 में किए गए संशोधन के बाद चुनावी दस्तावेजों को सार्वजनिक निरीक्षण से दूर कर दिया गया है। जिससे चुनावों की निष्पक्षता को लेकर जो गंभीर प्रश्न उठ रहे हैं उसके बाद इसमें नया विवाद पैदा हो गया है। हाल ही में हरियाणा और मुंबई हाईकोर्ट द्वारा चुनाव आयोग को लेकर कुछ आदेश जारी किए गए थे। उनसे बचने के लिए यह संशोधन लाए गए हैं। जिसके कारण देश में एक बार फिर चुनाव आयोग और केंद्र सरकार की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर सवाल उठ खड़े हुए हैं। ईवीएम और वीवीपैट जैसे मुद्दे पर पहले से ही विपक्ष और नागरिक, समाज द्वारा न्यायपालिका में लड़ाई लड़ी जा रही है। लेकिन न्यायपालिका द्वारा सरकार और चुनाव आयोग के पक्ष में निर्णय किए जा रहे हैं। यहां तक कि चुनाव आयोग की पुरानी परंपरा और नियमों को दरकिनार करते हुए इस तरह के आदेश न्यायपालिका से जारी हो रहे हैं, जिसके कारण नागरिकों और राजनीतिक दलों में चिंता बढती ही जा रही है। अब केंद्र सरकार द्वारा चुनाव आयोग को अपार अधिकार देकर, उसे किसी भी प्रश्न से अछूता रखने तथा संवैधानिक जवाबदेही से बचाने का प्रयास किया गया है। इससे न केवल चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता एवं निष्पक्षता पर खतरा पैदा हो गया है, बल्कि जनता के विश्वास पर भी कुठाराघात हुआ है। कानून मंत्रालय ने यह संशोधन ऐसे समय पर किया है, जब चुनाव आयोग कटघरे में खड़ा हुआ है। चुनाव आयोग को लेकर कई याचिकाएं विभिन्न हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं। चुनावों में गड़बड़ी की संभावना और उसके खिलाफ सबूत जुटाने में विपक्ष और लोकतांत्रिक संस्थाओं की भूमिका को सीमित कर दिया गया है। हरियाणा और महाराष्ट्र के जो चुनाव परिणाम आए हैं, चुनाव आयोग द्वारा मतदान के रिकॉर्ड और मतगणना के रिकॉर्ड में लगातार परिवर्तन किए गए हैं। चुनावों में बीजेपी के बढ़ते प्रभुत्व और चुनाव आयोग की भूमिका से इस मुद्दे को और गंभीर बना दिया है। विपक्षी दलों की अपील और अदालतों में दाखिल याचिकाएं भी, संशोधनों के चलते बेअसर हो जाएंगी। एक तरह से यह नागरिक अधिकारों को खत्म करने जैसा माना जा रहा है। चुनाव आयोग को जिस तरह से किसी भी तरह की जवाबदेही से दूर करते हुए उसे अधिकार दिए जा रहे हैं। सरकार द्वारा चुनाव आयोग को दिए गए अधिकार, आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकार को कम करने और न्यायपालिका की शक्ति को कम करने जैसा ही माना जा रहा है। वर्तमान स्थिति मे आवश्यक है, चुनाव आयोग अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए पारदर्शिता को प्राथमिकता दे। केंद्र सरकार की जिम्मेदारी थी कि ऐसे समय पर वह इस तरीके के परिवर्तन ना करे जिससे लोगों के बीच में गलत संदेश जाए लोकतंत्र केवल चुनाव जीतने तक सीमित नहीं है बल्कि यह लोकतंत्र में नागरिक अधिकार, जनता के विश्वास और संविधान की भावना के अनुरूप होना चाहिए। यदि जनता को चुनाव आयोग पर विश्वास नहीं रहेगा, कि उसके मत का सही उपयोग हो रहा है। ऐसी स्थिति में लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। बांग्लादेश में चुनाव आयोग और सरकार ने मिलकर जरूर चुनाव जीत लिया था लेकिन जनता ने उस पर विश्वास नहीं किया और देखते ही देखते बांग्लादेश की प्रधानमंत्री को देश छोड़कर भागना पड़ा अन्य देशों में भी इसी तरीके की स्थितियां देखने को मिल रही हैं। वर्तमान में भारत में जिस तरह की परिस्थितियों बनी हुई है उसमें सरकार, चुनाव आयोग और न्यायपालिका को अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन इस तरह से करना होगा जिससे नागरिकों का विश्वास न्यायपालिका विधायिका और कार्यपाल का के साथ-साथ संवैधानिक संस्थाओं पर भी बना रहे अभी जिस तरह की स्थितियां दिख रही हैं। उसके बाद यह कहा जाने लगा है कि यह अघोषित आपातकाल है जो लोकतंत्र को राजतंत्र की ओर ले जा रहा है राजतंत्र और तानाशाह दोनों के स्वरूप एक से ही माने जाते हैं राजा जो चाहता है वह करता है। तानाशाह भी जो चाहता है, वह करता है। भारत में महंगाई बेरोजगारी आर्थिक मंदी तथा अर्थव्यवस्था में जिस तरीके के बदलाव देखने को मिल रहे हैं ऐसे समय पर केंद्र सरकार और चुनाव आयोग ने जिस तरह की परिवर्तन किए हैं उसको स्वीकार कर पाना आम जनता के लिए शायद संभव नहीं होगा ऐसी स्थिति में यदि न्यायपालिका ने भी अपनी जिम्मेदारी ठीक तरह से नहीं निभाई तो भारत में भी वही सबको देखने को मिल सकता है जो बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे देशों में हुआ है।

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