राजनैतिकशिक्षा

राष्ट्र के नागरिकों से आत्म निवेदन

-हुक्मदेव नारायण यादव-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

कभी कभी मन में बात आती हैं कि अब मेरी बात लोग क्यो सुनेंगे। मैं किसी पद पर नही हूं। मैं कोई विद्वान अथवा विशेषज्ञ नही हूं। मेरी पत्नी राजनीति में मेरे साथ सक्रिय रही हैं। विद्वान और समझदार भी हैं। किसी मायने में मुझसे ज्यादा ही है। परंतु कहती रहती हैं अवसर के अभाव में मनुष्य की योग्यता, प्रतिभा और विद्वता सभी निरर्थक हो जाते हैं। सरकारी अथवा गैर सरकारी पद पर आसीन व्यक्ति को आधिकारिक माना जाता हैं। परंतु भारतीय संस्कृति में जंगल मे रहने वाले किसी तरह की सरकारी सहायता नही लेने वाले ऋषियों को ही पूज्यनीय माना गया। आज भले ही उसमें विकृति आ गयी हो। कारण वे भी अधिकतर राज्य पर आश्रित होने लगे हैं और धन संग्रह कर सुख-सुविधा में जीने वाले बन गए हैं। खैर मेरी आत्मा से एक क्षीण आवाज आती हैं कि मैं कुछ नहीं हूं परन्तु भारत का एक वरिष्ठ नागरिक हूं। 60-65 वर्षों तक संघर्ष किया हूं। गैर कांग्रेस वाद का नारा था और वही सपना था जो जीवन के अंतिम चरण में पूरा हुआ है। देश के गांव-गरीब-किसान-मजदूर-पिछड़े और दलित समाज के प्रति आभार प्रकट करता हूं। देश के सभ्य समाज के कुछ लोगों ने भी उसमें साथ दिया है। इतिहास उनके योगदान को स्मरण रखेगा।

डॉ. राममनोहर लोहिया स्वतंत्रता सेनानी के साथ साथ गांधी जी के अत्यंत प्रिय सहयोगी थे। पंडित नेहरू के सहयोगी, सहयात्री, समकक्षी और सहकर्मी थे। स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम चरण में वे नेहरू के आलोचक बन गये। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे नेहरू जी की नीतियों के प्रबल विरोधी रहे और जीवन के अंतिम क्षण तक बने रहे। राष्ट्रीयता के प्रति उनका पूर्ण समर्पण था। अपने राष्ट्र के लिए वे कुछ भी करने के लिए तैयार रहते थे। इस लिए युवा वर्ग और विद्वानों को उनका साहित्य अवश्य पढ़ना चाहिए जिससे स्वतंत्रता आंदोलन, देश के विभाजन और आजाद भारत में नेहरू जी की गलत नीतियों के कारण जो कुछ हुआ उसका प्रत्यक्ष और सत्य विवरण मिल जाए। देश और विदेश नीतियों के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी मिल जाए। खासकर ‘विदेशी नीति’ और ‘भारत चीन उत्तरी सीमाएं’। पुस्तक को पढ़ने से कई गुप्त रहस्यों की जानकारी मिल जाएगी। राष्ट्र के सम्मान और स्वाभिमान तथा सुरक्षा के साथ कैसे खिलवाड़ किया गया।

डॉ. लोहिया कहते थे-’मेरी बात एक न एक दिन लोग सुनेंगे जरूर, शायद मेरे मरने के बाद ही सही’। हम लोग उसी राह के राही रहे हैं। वे कहा करते थे-’राह को देखो राही को मत देखो’। राह सही है और दीर्घकालीन हैं तथा सर्व सुलभ हैं तब राही कौन हैं? इसको मत देखो। अपने और पराये में भेद मत करो। जाति, सम्प्रदाय और अपने स्वार्थ को मत देखो। व्यापकता और राष्ट्रहित में राही की नीयत और नीति दोनों को देखो। निजी और सार्वजनिक जीवन मे भेद मत करो। मंच की बातों से मत परखो। मंच पर सभी की बाते क्रांतिकारी होती हैं। मंच से उतरने के बाद वह किसके साथ बैठता है और किसके साथ खाता पीता है उससे उसका मूल्यांकन करो। विश्वास पूर्वक वे कहा करते थे- किसी दिन देश मे सच्ची राष्ट्रीयता वाली सरकार आएगी तब सभी गद्दारों पर कारवाई करेगी। भारत-चीन युद्ध में शर्मनाक पराजय क्यो हुई? भारत की पलटन बिना लड़े क्यो भागने लगी? अफसर क्यो भागने लगे? उर्वशीअम (नेफा) को प्रतिबंधित क्षेत्र क्यो बनाया गया? देश के लोगों को उस क्षेत्र में जाने से क्यो रोका गया? एक भूतपूर्व पादरी को असम सरकार का सलाहकार क्यो बनाया गया? इत्यादि प्रश्नों के विषय में विशेष जानकारी उनके ग्रन्थों में है। उस पर शोध करने और उसका विश्लेषण करने की आवश्यकता है। सत्य को छिपा कर रखा गया, उसको युवापीढ़ी के सामने प्रकट करना चाहिए। क्या हम ऐसा कर पाएंगे?

मेरे जैसे सैकड़ों-हजारों किसान-मजदूर-पिछड़ा और दलित लोग समानता के लिए लड़ते रहे और लड़ रहे हैं। आजादी के बाद देश मे चार तरह के नेता हुए। सुरक्षित, संरक्षित, आरक्षित और उपेक्षित। कुछ जाति के ही कुछ वंश के लोगों के लिए सत्ता सुरक्षित थी। वे जन्म के कारण सत्ता के मालिक बनते रहे। चाहे योग्यता-कर्मठता-अनुभव और त्याग हो या न हो। अमुक वंश के हैं इसलिए सत्ता उनके लिए सुरक्षित रहेगी। लोकतंत्र का राजतंत्री करण किया गया। दूसरा संरक्षित वे लोग रहे जो सुरक्षित सत्ताधारियों के चापलूस और स्तुति करने वाले रहे। इसमें अधिकतर पूर्व राजवंशी तथा प्रशासनिक अधिकारी रहे। चूंकि देश मे कुछ राजवंशी घराने गुलाम भारत मे मुगल और अंग्रेज शासक के आदेश पालन कर बने रहे। वे ही अपने देशवासियों खास कर गरीबों-पिछड़ा वर्गों और दलित समाज पर अमानवीय अत्याचार करने वाले थे। आजाद भारत मे वे सत्ता से जुड़ गये और सुरक्षित बन गये। आरक्षित वे लोग थे जो उन दोनों वर्गों की स्तुति करते थे और यशोगान करते थे। उसमें विद्वान, बुद्धिजीवी, पत्रकार और कुछ विदेशी धन से देश मे संस्था चला कर भ्रम पैदा करने वाले थे। आज भी उन सभी का शेष और अवशेष हैं जो देश मे भ्रम और भ्रांति फैलाते रहते हैं।

बहुरूपिया बन कर जाति-सम्प्रदाय और गरीब हितैषी बन कर नाटक करने में लगे हुए हैं। उपेक्षित वर्ग में किसान-मजदूर-पिछड़ा वर्ग और दलित तथा वनवासी रहे हैं। उन्हें बहुरूपियों ने अनेक रूप से भ्रमित करने का काम किया। प्रमाण है कि देश में जो भारत रत्न, पद्म सम्मान और अन्य सरकारी सम्मान दिये जाते रहे उसमें देश के 80-90 प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी नही रही। उन्हें योग्य ही नही माना गया। सरकार द्वारा और राष्ट्रपति द्वारा जितने मनोनयन किये गये उसमें उनकी भागीदारी शून्य रही। क्या उनमें अनुभवी, योग्य प्रतिभाशाली और दक्षता प्राप्त लोग नही रहे? असल में चयन करने वाले लोगों की नजर में वे सम्मान पाने के योग्य नही थे? मेरे जैसे सैकड़ो लोग उसी श्रेणी के लोग रहे हैं। अब दृष्टि बदली है, दिशा बदली है, राह बदली है, कारण राही अर्थात नेतृत्व सही मिला है। उपेक्षित और वंचित वर्ग को कुछ कुछ हिस्सेदारी मिलने लगी हैं। स्वाभिमान जग रहा है। अवसर मिलने लगा है।

सुरक्षित, संरक्षित और आरक्षित वर्ग को इससे जलन हैं और वे बेचैन हो कर अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं। युवावर्ग और राष्ट्र के प्रति पूर्ण निष्ठावान तथा समर्पित नागरिकों का राष्ट्र धर्म हैं कि वे मौन नही रहे। सभी मोह माया से मुक्त हो कर तथा अपने और पराये का भेद भुलाकर राष्ट्र धर्म की रक्षा के लिए उठे और जागे। जाति के बंधन को तोड़ कर पूर्ण समर्पित भाव से उपेक्षित और वंचित समुदाय को सम्मान देने और दिलाने के लिए नवजागरण का अभियान चलावे। जाति प्रथा के कारण देश बहुत अपमान सहते आ रहा है अब आगे अपमान नही सहना पड़े। श्री नरेन्द्र मोदी से आशा है कि वे अपनी सरकार की नीतियों से उन उपेक्षित-वंचित-पीड़ित और प्रताड़ित वर्ग को सम्मान और न्याय दिलवाने का काम करेंगे। उन्हें उचित हिस्सेदारी मिल सके ऐसी व्यवस्था बनाने में सफल होंगे। राष्ट्र के जागरण और रूपांतरण का समय आ गया है। राष्ट्र जाग रहा है। स्वदेशी, स्वाभिमान, स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता का युग प्रारम्भ हो चुका है। हजार वर्षों के रोग को दूर होने में भी सौ-पचास वर्ष लगेगा। राह और राही सही है। मंजिल दूर है परन्तु पाना कठिन नही हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *