आतंकवाद का बदलता स्वरूप
-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
दिल्ली में दस नवंबर को लाल किला के पास बम विस्फोट से अनेक निर्दोष लोगों की जान चली गई। आतंकवाद के काम के लिए जैश-ए-मोहम्मद और अंसार-गजावत-उल-हिन्द को जिम्मेदार माना जा रहा है। दिल्ली में हुए इस विस्फोट से पहले जम्मू-कश्मीर और हरियाणा की पुलिस ने इस नैटवर्क के कुछ प्रमुख लोगों को पकड़ लिया था। 9 नवम्बर को ही गुजरात पुलिस ने एक आतंकवादी संगठन के कुछ लोगों को गिरफ्तार किया जो किसी बड़ी वारदात का मौका तलाश रहे थे। लेकिन गुजरात व दिल्ली/कश्मीर से पकड़े गए आतंकवादियों में एक नई समानता दिखाई दे रही है। गुजरात में जो तीन लोग पकड़े गए हैं उनका सरगना आन्ध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) का डाक्टर सैयद अहमद मोहिउद्दीन है। यह डाक्टर चीन में लम्बे अरसे तक डाक्टरी सीख कर आया है। यह प्रयोगशाला में रिसिन नाम का जहर तैयार कर रहा था। यह जहर दुनिया का सबसे घातक जहर है। न इसकी गंध होती है और न ही स्वाद। इसलिए यदि इसको किसी केन्द्रीकृत जल स्रोत में मिला दिया जाए दो तबाही मचा सकता है। इस जहर वाले डाक्टर के दूसरे दो सहायक शेख आजाद सुलेमान और मोहम्मद सुहेल सलीम भी पकड़े गए हैं। तीनों ने अहमदाबाद, लखनऊ और दिल्ली की अनेक बार रेकी भी की। लेकिन वे किसी वारदात को अंजाम दे पाते उससे पहले ही गुजरात पुलिस की गिरफ्त में आ गए। जिन दिनों तेलंगाना के डा. सैयद अहमद मोहिउद्दीन भारत पर आतंकवादी आक्रमण के लिए रासायनिक हथियार बना रहा था, उन्हीं दिनों कश्मीर और लखनऊ में भी कुछ डाक्टर इसी काम में लगे हुए थे। लेकिन वे जहर के रासायनिक हथियार नहीं बना रहे थे बल्कि वे विभिन्न रसायनों को मिला कर उच्च गुणवत्ता के विस्फोटक तैयार कर रहे थे।
तीन हजार किलोग्राम विस्फोटक पदार्थ तो अभी तक पुलिस अपने कब्जे में ले चुकी है। ये डाक्टर फरीदाबाद के अलफलाह विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में सक्रिय थे। पुलिस को संदेह है कि विश्वविद्यालय की प्रयोगशालाओं का प्रयोग छात्रों को कुछ सिखाने के साथ साथ विस्फोटकों पर भी प्रयोग तो नहीं किए जा रहे थे? अभी तक आतंकवाद को लेकर विद्वान लोग यही व्याख्या कर रहे थे कि बेरोजगारी के कारण हताशा में युवा पीढ़ी बंदूक उठा लेती है। केवल आतंकवाद ही नहीं माओवाद/नक्सलवाद को लेकर भी बुद्धिजीवी यही तर्क देते हैं। ये तर्क वे लोग देते हैं जिनके कान भीतर की आवाज को सुन नहीं पाते। वे लोग अपना बौद्धिक आतंक व नेतृत्व जमाए रखने के लिए इस प्रकार की हवाई व्याख्याएं देते हैं। जबकि आतंकवाद का मूल कहीं और है। आतंकवाद महज हताशा या दुस्साहस नहीं है। इसके पीछे पूरी विचारधारा होती है। उस विचारधारा के आधार पर कुछ प्राप्त करने की कल्पना की जाती है। उस प्राप्ति के लिए आतंक, हत्या को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। यह ध्यान रखना चाहिए कि आतंकवाद महज एक साधन है जिसके प्रयोग से कोई व्यक्ति या समूह प्रचलित व्यवस्था के स्थान पर कोई वैकल्पिक व्यवस्था स्थापित करना चाहता है। वैकल्पिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए दूसरे तरीके भी हैं। सबसे प्रचलित तरीका लोकतांत्रिक तरीका है। इससे लोगों को अपना मत व्यक्त करने का अवसर दिया जाता है। लेकिन जब किसी ग्रुप को लगता है कि लोग उनके साथ नहीं हैं, वे उस व्यवस्था से सहमत नहीं हैं जो व्यवस्था यह ग्रुप स्थापित करना चाहता है। उस स्थिति में इस प्रकार के विशेष ग्रुप आतंक का सहारा लेते हैं। आतंक फैलाने के लिए हिंसा और हत्या का सहारा लिया जाता है। लेकिन वे जानते हैं कि किसी दोषी की हत्या से आतंक नहीं फैलता। उससे तो आम आदमी ख़ुश ही होते हैं। इसलिए निर्दोषों की हत्या करके आतंक फैलाया जाता है। आतंकवाद और नक्सलवाद का मूल इसी व्याख्या में छिपा हुआ है। लेकिन प्रश्न यह है कि भारत में जो समूह अलग अलग या मिल कर आतंकवाद का प्रयोग कर रहे हैं, वे आखिर क्या प्राप्त करना चाहते हैं? ऐसी कौन सी वैकल्पिक व्यवस्था है जो वे भारत में स्थापित करना चाहते हैं? इसकी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कई बार ये समूह व्याख्या कर चुके हैं या करते रहते हैं। ये समूह मानते हैं कि भारत में सदियों पहले जो प्रयोग शुरू किया था, वह अभी तक सफल नहीं हो सका।
अधूरा रह गया है। ये समूह भारत को दारुल इस्लाम बनाना चाहते हैं। दरअसल एटीएम (अरब, तुर्क, मुगल) के शासन का जब भारत में से अन्त हुआ तब तक वे भारत को इस्लामी देश बनाने में सफल नहीं हो सके थे। उससे पहले ही भारत में एक दूसरी विदेशी ताकत आ गई थी जो ईसाई बिरादरी से ताल्लुक रखती थी। भारत में एटीएम की सत्ता ही समाप्त नहीं हुई बल्कि एटीएम की अपनी हालत ही दयनीय हो गई। भारत के देसी मुसलमानों से उनका कोई ताल्लुक नहीं था। हिन्दुस्तान में जो मुसलमान थे वे देसी मुसलमान थे जो इस एटीएम के शिकार थे न कि शिकारी। सत्ता से हट कर जब एटीएम मूल के मुसलमान जमीन पर उतरे तो उनकी संख्या महज दो तीन प्रतिशत ही थी। इसलिए अपनी अगली रणनीति के लिए वे नए अंग्रेज शासकों की शरण में चले गए। एटीएम की उसी रणनीति में से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी निकली और उसी रणनीति के चलते भारत के एक हिस्से को पाकिस्तान के नाम से इस्लामिक देश घोषित किया गया। लेकिन मकसद तो ईरान की तरह पूरे हिन्दुस्तान को इस्लामी देश बनाना था। इसे महज संयोग ही कहा जाएगा कि विश्व में सोवियत रूस और अमेरिका की दादागिरी में, रूस को सबक सिखाने के लिए अमेरिका को रणनीति के चलते इस्लामी आतंकवाद की जरूरत पड़ गई। इसके लिए पाकिस्तान अमेरिका से पैसा लेकर अपने यहां आतंकवाद की प्रयोगशाला स्थापित करने के लिए तैयार हो गया। सभी आतंकवादी समूह इसी प्रयोगशाला में से निकले। इन प्रयोगशालाओं का नेतृत्व अरब व तुर्क मुसलमानों के हाथ में ही था। सभ्यताओं के इस संघर्ष में अब केवल भारत ही आंख की किरकिरी है। इसलिए इन अमेरिकी प्रयोगशालाओं के स्पिलिंटर्ज अब भारत को भी निशाना बना रहे हैं। लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि अभी तक भारत का एटीएम बहुत ही होशियारी से आतंक के लिए देसी मुसलमानों का ही प्रयोग कर रहा था।
स्वयं पर्दे के पीछे रह कर उन्हें विचार व हथियार ही दे रहा था। एटीएम बेरोजगार या अनपढ़ नहीं है। न ही वह हताश है। बल्कि इसरे विपरीत ही हद दर्जे का शातिर है। भारत में देसी मुसलमानों का नेतृत्व करता है। इसलिए आतंक की अपनी रणनीति में देसी मुसलमान जिसे वह पसमांदा, अरजाल, अलजाफ और न जाने क्या क्या कहता है, को ही मैदान में उतारता है। उन्हीं के पेट पर बम बांध कर उन्हें चारे के तौर पर इस्तेमाल करता है। लेकिन लगता है अब देसी मुसलमान आगे आने से मना कर रहा है। यही कारण है कि ये जो नया आतंकवादी समूह राडार पर आया है, इसमें ज्यादा वे लोग हैं जो अभी तक पर्दे के पीछे रहते थे और केवल नेतृत्व करते थे। लेकिन अब ये खुद ही मैदान में उतर आए हैं। ऐसा मुझे इसलिए भी लगता है क्योंकि एक्शन के लिए तैयार जो लोग पकड़े गए हैं, उनमें से एटीएम मूल के कुछ सैयद भी दिखाई पड़ रहे हैं। यह आतंकवाद की रणनीति में बदलाव का संकेत है या फिर देसी मुसलमान का एटीएम से मोहभंग होना है? इस पर रोक लगनी चाहिए।
