केंद्र की सत्ता पर संघ का वर्चस्व!
-जयशंकर गुप्त-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
भाजपा और आरएसएस के करीबी पत्रकारों की सुनें तो हाल के दिनों में श्री धनखड़ के भीतर कुछ अलग तरह की महत्वाकांक्षाएं जोर मारने लगी थीं। सत्ता के गलियारों में पैठ रखने का दावा करने वाले कुछ संघनिष्ठ पत्रकारों के द्वारा सोशल मीडिया-यू ट्यूब पर श्री धनखड़ के इस्तीफे अथवा उन्हें हटाए जाने का एक अलग ही कारण बताया गया कि कभी श्री मोदी के करीबी रहे एक पूंजीपति के सहयोग से वह प्रधानमंत्री श्री मोदी को सत्ताच्युत करने के षड्यंत्र में शामिल थे।
देश के नये और पंद्रहवें (अगर पहले उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के दो लगातार कार्यकाल और हमिद अंसारी के भी दो लगातार कार्यकाल को अलग-करके देखें तो सत्रहवें) उपराष्ट्रपति के रूप में महाराष्ट्र के निवर्तमान और झारखंड के पूर्व राज्यपाल सी पी राधाकृष्णन के चुनाव को इसी महीने अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरा कर रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा जा रहा है। 9 सितंबर को संघ के स्वयंसेवक-प्रचारक रहे राधाकृष्णन के उपराष्ट्रपति सह राज्यसभा के सभापति चुन लिए जाने के बाद केंद्रीय सत्ता पर वर्चस्व कायम करने की संघ की मुराद पूरी सी हो गई लगती है। राष्ट्रपति के रूप में संघ की राष्ट्र सेविका समिति से जुड़ी रही द्रौपदी मुर्मू, लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिड़ला भी आरएसएस से जुड़े रहे हैं जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा उनके मंत्रिमंडल के तकरीबन सभी बड़े एवं महत्वपूर्ण मंत्रालयों का जिम्मा मूल रूप से आरएसएस-भाजपा से जुड़े नेताओं के पास ही है।
राधाकृष्णन ने विपक्षी गठबंधन, ‘इंडिया’ के उम्मीदवार सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी को सीधे मुकाबले में 152 मतों से पराजित कर दिया। श्री राधाकृष्णन को 452 एवं श्री रेड्डी को 300 मत मिले। 15 मत तकनीकी कारणों से या कहें, जानबूझकर मतदाता-सांसदों के द्वारा की गई ‘गलती’ से रद्द हो गए। सरकार और मुख्य विपक्ष से समान दूरी रखने का दावा करने वाले दलों-बीजेडी, अकाली दल और बीआरएस तथा एक दो निर्दलीय सांसदों ने भी अपने ही कारणों से मतदान में शामिल नहीं होने का फैसला किया था। इसके अलावा मुख्य विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ तकरीबन एकजुट ही रहा।
यह चुनाव देश के 14वें उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ (74 वर्ष) के 21 जुलाई को संसद के मानसून सत्र के पहले ही दिन देर शाम को त्यागपत्र के कारण हुआ। ऐसा आजाद भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में शायद पहली बार ही हुआ था जब किसी वर्तमान उपराष्ट्रपति ने कार्यकाल बाकी रहते संसद के चालू सत्र में त्यागपत्र दिया। उनका कार्यकाल 10 अगस्त, 2027 तक था। जुलाई, 2025 की शुरुआत में एक कार्यक्रम में उन्होंने अगस्त, 2027 में रिटायर होने की बात भी कही थी। उन्होंने मानसून सत्र के पहले दिन 21 जुलाई को जिस सक्रियता से राज्यसभा की कार्यवाही का संचालन किया, किसी के लिए भी सहज विश्वास कर पाना मुश्किल हो रहा था कि उन्होंने खराब स्वास्थ्य की वजह से इस्तीफा दिया होगा।
श्री धनखड़ के इस्तीफे के तात्कालिक कारण कुछ भी रहे हों, सरकार और उनके बीच परोक्ष रूप से अनबन तो महीनों से चल रही थी। हालांकि, राज्यपाल और उपराष्ट्रपति सह राज्यसभा के सभापति के रूप में भी उनकी भूमिका ‘लायल दैन किंग’ वाली ही नजर आती थी। प्रधानमंत्री श्री मोदी और उनकी सरकार के पक्ष में चाटुकारिता की हद तक जाकर वह कसीदे पढ़ने में कभी कोताही नहीं करते थे। उन्होंने भाजपा की मातृ-पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को खुश करने की गरज से उसके पक्ष में भी कसीदे पढ़ने शुरू कर दिए थे। जब संघ के सरकार्यवाह (महासचिव) दत्तात्रेय होसबोले ने आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्दों को हटाने का अभियान चलाया तो उनके सुर में सुर मिलाते हुए श्री धनखड़ ने भी उनका पुरजोर समर्थन किया था।
राज्यसभा में सभापति के रूप में विपक्ष अक्सर उन पर तटस्थ रहने के बजाय पक्षपाती होने के आरोप लगाता था। सदन में विपक्षी सांसदों के निलंबन से लेकर हल्ला-हंगामे के बीच भी वह कुछ बहुत महत्वपूर्ण (विपक्ष की निगाह में खतरनाक) विधेयक बिना किसी चर्चा के ही पास कराने में सहायक नजर आते थे। यह भी कुछ कारण थे कि आजाद भारत में उपराष्ट्रपति पद के श्रृजन के बाद के 72 वर्षों के इतिहास में श्री धनखड़ पहले ऐसे राज्यसभा के सभापति रहे, जिनके खिलाफ 11 दिसंबर, 2024 को विपक्ष ने अविश्वास (महाभियोग) प्रस्ताव पेश किया था, जो बाद में तकनीकी कारणों से खारिज हो गया था।
लेकिन ‘लायल दैन किंग’ होने के बावजूद इधर उन्हें अपनी योग्यता, क्षमता, अधिकारों और रणनीतिक कौशल को लेकर गलतफहमी सी हो गई थी। वह भूल गए थे कि वह मूल रूप से आरएसएस और भाजपा के प्रोडक्ट नहीं हैं और उन्हें उनकी योग्यता-अनुभव से अधिक पश्चिम बंगाल में राज्यपाल रहते उनकी ‘सेवाओं’ के बदले उपराष्ट्रपति बनाकर उन्हें उपकृत किया गया था। राज्यपाल के रूप में उनकी भूमिका अक्सर विवादों में ही रही। उन्होंने ममता बनर्जी और उनकी सरकार को परेशान करने, उस पर सीधे आक्षेप करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लोग उन पर भाजपा के एजेंट के रूप में काम करने के आरोप लगाते थे।
हाल के दिनों में वह खुद को राष्ट्रपति के बाद प्रोटोकॉल में सबसे ऊपर (यहां तक कि प्रधानमंत्री से भी ऊपर नहीं तो बराबर) समझने और उसी के अनुरूप अपने लिए देश-विदेश में प्रोटोकॉल भी चाहने लगे थे। वह चाहते थे कि जिस तरह से सरकारी कार्यालयों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की तस्वीर लगी होती है उसी तरह वहां उपराष्ट्रपति की तस्वीर भी होनी चाहिए। इसी तरह वह राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की तरह उपराष्ट्रपति के लिए भी उसी तरह की कार और विमान भी चाहते थे। उपराष्ट्रपति होने के नाते वह विदेशी गणमान्य व्यक्तियों-अतिथियों से मिलना चाहते थे। यह सब नहीं हो पाने के कारण वह नाराज से थे। किसानों के मुद्दों को लेकर भी उनके विचार सरकार से मेल नहीं खा रहे थे। श्री धनखड़ के इस्तीफे के पीछे एक वजह राज्यसभा में उनकी ओर से जस्टिस यशवंत वर्मा के मामले में विपक्ष के महाभियोग प्रस्ताव को मंजूरी देना भी माना गया क्योंकि मोदी सरकार जस्टिस वर्मा के मामले को अपने ढंग से डील करना और यह दिखाना चाहती थी कि वह विपक्ष के साथ मिलकर जस्टिस वर्मा के विरुद्ध संयुक्त रूप से महाभिय़ोग का प्रस्ताव ला रही है। लोकसभा में इस प्रस्ताव पर एनडीए और विपक्ष दोनों तरफ के सांसदों के हस्ताक्षर थे। वहीं, राज्यसभा में जस्टिस वर्मा पर जो प्रस्ताव लाया गया, उसमें सिर्फ विपक्ष के सांसदों के हस्ताक्षर थे। श्री धनखड़ ने राज्यसभा में घोषणा की कि महाभियोग के लिए 50 सिग्नेचर चाहिए होते हैं, और उनके पास विपक्ष का प्रस्ताव आ गया है।
भाजपा और आरएसएस के करीबी पत्रकारों की सुनें तो हाल के दिनों में श्री धनखड़ के भीतर कुछ अलग तरह की महत्वाकांक्षाएं जोर मारने लगी थीं। सत्ता के गलियारों में पैठ रखने का दावा करने वाले कुछ संघनिष्ठ पत्रकारों के द्वारा सोशल मीडिया-यू ट्यूब पर श्री धनखड़ के इस्तीफे अथवा उन्हें हटाए जाने का एक अलग ही कारण बताया गया कि कभी श्री मोदी के करीबी रहे एक पूंजीपति के सहयोग से वह प्रधानमंत्री श्री मोदी को सत्ताच्युत करने के षड्यंत्र में शामिल थे। इसी क्रम में उन्होंने आम आदमी पार्टी के नेता, दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मुलाकात की थी। वह केजरीवाल और उस पूंजीपति के जरिए आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को साध कर सरकार गिराने या फिर नेतृत्व परिवर्तन के खेल में लगे थे। लेकिन इन संघनिष्ठ पत्रकारों के अनुसार इस बात की भनक प्रधानमंत्री श्री मोदी और उनके करीबी लोगों को लगने के बाद उपराष्ट्रपति पद से श्री धनखड़ की विदाई तय हो गई थी। 21 जुलाई की शाम 7.30 बजे श्री धनखड़ की जयराम रमेश से टेलीफोन पर हुई बातचीत का ब्यौरा मिलने के बाद आनन-फानन में श्री धनखड़ को त्यागपत्र देने या फिर अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने के लिए तैयार रहने का फरमान सुना दिया गया। यहां तक कि इस्तीफे का मजमून भी ऊपर से तैयार होकर ही उनके पास आया था जिस पर उन्हें दस्तखत करने थे। कहा जा रहा है कि श्री रमेश ने श्री धनखड़ पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के विवादित जज शेखर यादव के खिलाफ भी महाभियोग प्रस्ताव की मंजूरी के लिए दबाव बनाया था जिस पर उन्होंने कहा था कि कल देखेंगे। यह बात मोदी सरकार को कतई मंजूर नहीं थी कि शेखर यादव पर भी महाभियोग प्रस्ताव आए। इसमें कितना सच है, यह तो आने वाले दिनों में ही पता चल सकेगा, या फिर तब, जब श्री धनखड़ इसके बारे में मुंह खोलेंगे। वैसे, 19 अगस्त को उपराष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा (राजग) के उम्मीदवार सी पी राधाकृष्णन का राजग के सांसदों से परिचय करवाने के अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहकर कि श्री राधाकृष्णन भले व्यक्ति हैं, खिलाड़ी भी रहे हैं लेकिन यह राजनीति में खेल नहीं करते, परोक्ष रूप से इसी दिशा में संकेत किया था। यह महज संयोग भी हो सकता है कि श्री धनखड़ के त्यागपत्र के बाद से एक पूंजीपति के घर सीबीआई और ईडी के छापे पड़ने लगे और एक के बाद एक कई बैंकों ने उन्हें फ्राड घोषित करना शुरू कर दिया।
बहरहाल, अब देखने की बात यह होगी कि संघनिष्ठ श्री राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति सह राज्यसभा के सभापति के रूप में सदन में और उसके बाहर भी ‘लायल दैन किंग’ वाली श्री धनखड़ की पक्षपाती भूमिका और कार्यशैली को ही अपनाएंगे या फिर सदन में संविधान, नियम-कानून और समभाव-समदृष्टि के हिसाब से काम करेंगे। इसके कुछ संकेत तो अगले शीतकालीन सत्र में ही देखने के मिल जाएंगे।