प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा से भारत को क्या हासिल हुआ?
-डॉ. मयंक चतुर्वेदी-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हालिया चीन यात्रा को केवल औपचारिक शिखर सम्मेलन में उपस्थिति मान लेना भूल होगी। यह यात्रा उस समय हुई है जब भारत-चीन के बीच सीमा पर भरोसे का संकट गहरा है, भारत-अमेरिका संबंध का एक नया पन्ना सामने है और रूस के साथ भारत का ऊर्जा तथा रक्षा सहयोग अभूतपूर्व स्तर तक पहुँचा है। ऐसे परिदृश्य में बीजिंग की धरती पर भारतीय प्रधानमंत्री का उतरना एशियाई राजनीति के बदलते समीकरणों की झलक देता है। यह यात्रा भारत की विदेश नीति में आत्मविश्वास और संतुलन दोनों का प्रमाण है।
व्यापारिक आँकड़े साफ कहते हैं कि चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है, लेकिन यह रिश्ता बेहद असंतुलित है। वित्त वर्ष 2024-25 में भारत और चीन का द्विपक्षीय व्यापार 127.7 अरब डॉलर तक पहुँचा। इसमें भारत का निर्यात केवल 14.25 अरब डॉलर का रहा, जबकि चीन से आयात 113.45 अरब डॉलर पर पहुँच गया। परिणामस्वरूप व्यापार घाटा 99 अरब डॉलर से अधिक का रहा, जो अब तक का सबसे ऊँचा स्तर है। यह स्थिति भारत की औद्योगिक निर्भरता को उजागर करती है, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक्स, रसायन, फार्मा और ऊर्जा उपकरणों के क्षेत्र में। प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा का एक बड़ा उद्देश्य इसी असंतुलन को कम करता हुआ दिखा है।
इस तुलना में रूस के साथ भारत का व्यापारिक समीकरण अपेक्षाकृत संतुलित और अवसरों से भरा हुआ है। वित्त वर्ष 2024-25 में भारत-रूस व्यापार 68.7 अरब डॉलर तक पहुँच गया, जो पिछले वर्ष की तुलना में कई गुना वृद्धि दर्शा रहा है। इसका मुख्य कारण रूस से बड़े पैमाने पर सस्ते कच्चे तेल का आयात है। ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने में यह सहयोग भारत के लिए अनिवार्य हो गया है। साथ ही, रूस भारत का पारंपरिक रक्षा सहयोगी है और अंतरिक्ष विज्ञान में भी दोनों देशों की साझेदारी मजबूत है। यूक्रेन युद्ध और पश्चिमी प्रतिबंधों के बावजूद भारत ने रूस के साथ अपने रिश्ते को बरकरार रखा है। मोदी की चीन यात्रा से यह संदेश भी गया कि भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता के सिद्धांत पर अडिग है और किसी एक ध्रुव पर झुकने को तैयार नहीं, फिर अमेरिका उस पर कितने ही दबाव बनाने का प्रयास करे।
हालांकि ऐसा नहीं है कि जो अमेरिका भारत पर लगातार आर्थिक दबाव बनाने की कोशिशें कर रहा है, उसके साथ भारत के व्यांपारिक संबंध कमजोर पड़े हैं, देखा जाए तो लगातार चौथे वर्ष भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बना हुआ है। वित्त वर्ष 2024-25 में भारत–अमेरिका का व्यापार 131.8 अरब डॉलर पर रहा। यह आँकड़ा न केवल चीन से अधिक है बल्कि यह भी दिखाता है कि तकनीकी, सेवा और विनिर्माण क्षेत्र में अमेरिका भारत के लिए सबसे भरोसेमंद बाज़ार है। संभावित मुक्त व्यापार समझौते और रक्षा प्रौद्योगिकी सहयोग इस रिश्ते को और गहरा करने वाले हैं। इस पृष्ठभूमि में मोदी की बीजिंग यात्रा को अमेरिका भी बारीकी से देख रहा है, उसका अध्यकयन कर रहा है, तुलनात्म क रूप से अपने नफा-नुकसान का आकलन कर रहा है। पर यहां जो स्पीष्टस संकेत विदेश नीति के स्तयर पर दिया गया है वह यही है कि भारत, चीन और रूस के साथ संवाद कायम रखते हुए भी अमेरिका और यूरोप से दूरी नहीं बना रहा।
बीजिंग यात्रा का कूटनीतिक संदेश यही है कि भारत वैश्विक शक्ति संतुलन में “संतुलनकारी” की भूमिका निभा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच बातचीत में यह सहमति बनी कि सीमा विवाद को रिश्तों की प्रगति में बाधा नहीं बनने दिया जाएगा। अब यह भले ही एक सामान्य-सा बयान लगे, किंतु इस सच को नकारा नहीं जा सकता है कि गलवान संघर्ष और लद्दाख में जारी तनातनी के बाद यह पहला अवसर रहा, जब शीर्ष नेतृत्व ने इतने स्पष्ट शब्दों में संवाद को प्राथमिकता दी। यात्राओं की बहाली, उड़ानों और वीजा में रियायतें तथा निवेश सहयोग पर चर्चा ऐसे संकेत हैं जो रिश्तों में जमी बर्फ को पिघलाने का प्रयास करते हैं।
फिर भी इस यात्रा की सीमाएँ भी हैं। विपक्ष का उठाया गया सवाल मायने रखता है कि व्यापार घाटे का बोझ घटाने की ठोस योजना सामने आए बिना बीजिंग से लौटे वादे केवल प्रतीकात्मक रह सकते हैं। चीन–पाकिस्तान गठजोड़, बेल्ट एंड रोड परियोजना पर मतभेद और हिंद-प्रशांत क्षेत्र की भू-राजनीति ऐसी चुनौतियाँ हैं जिन्हें केवल संवाद से नहीं सुलझाया जा सकता। भारत को आने वाले वर्षों में तीन मोर्चों पर खास ध्यान देने की आवश्यीकता है; पहला, चीन पर अपनी औद्योगिक निर्भरता को घटाना; दूसरा, रूस के साथ ऊर्जा और रक्षा सहयोग को दीर्घकालीन ढाँचे में ढालना और तीसरा, अमेरिका व यूरोप के साथ मुक्त व्यापार समझौतों को आगे बढ़ाना, ताकि निर्यात के नए अवसर मिल सकें।
मोदी की चीन यात्रा से सबसे बड़ा संदेश यही गया कि भारत अब प्रतिक्रियाशील शक्ति नहीं रहा। वह वैश्विक राजनीति और व्यापार में सक्रिय और आत्मविश्वासी ध्रुव के रूप में उभर रहा है। यह यात्रा इस तथ्य को पुष्ट करती है कि भारत की विदेश नीति अब केवल किसी एक गुट पर निर्भर नहीं, बल्कि बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में संतुलन साधने की दिशा में आगे बढ़ रही है। उसके लिए अपने नागरिकों के हित सर्वोपरि हैं। देश की सुरक्षा और संप्रभुता से कोई समझौता नहीं किया जाएगा, और ये शक्तिक शाली भारत न रुकेगा न किसी अन्य देश के सामने झुकेगा।
फिलहाल इस यात्रा के ठोस नतीजे सामने आने में हमें इंतजार करना होगा, क्योंंकि समय लगेगा लेकिन इसका प्रतीकात्मक महत्व कम नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की छवि उस राष्ट्र की बन रही है जो अपने हितों को साधते हुए संवाद और सहयोग की राह खुली रखता है। एशिया की राजनीति में यही संतुलनकारी भूमिका भारत की सबसे बड़ी ताकत बनकर आज उभर रही है।