दलगत राजनीति की भेंट चढ़ता संसदीय कामकाज, लोकसभा में 83 और राज्यसभा में 73 घंटे बर्बाद?
-राजकुमार सिंह-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
मानसून सत्र में ‘काम कम और हंगामा ज्यादा’ के आंकड़े इसी आशंका की पुष्टि करते हैं कि संसद दलगत राजनीति की बंधक बनती जा रही है. 21 जुलाई को उपराष्ट्रपति पद से जगदीप धनखड़ के अप्रत्याशित इस्तीफे के साथ शुरू हो कर 21 अगस्त तक चले मानसून सत्र में लोकसभा में मात्र 37 घंटे कामकाज हो पाया तो राज्यसभा में 41 घंटे 15 मिनट. बेशक हमेशा की तरह सरकार शोर-शराबे के बीच ही विधायी कामकाज निपटाने में सफल हो गई, लेकिन संसदीय कार्यवाही के लोकसभा में 83 घंटे और राज्यसभा में 73 घंटे हंगामे की भेंट चढ़ जाना चिंताजनक है.
हंगामे के चलते संसदीय कार्यवाही पर 204 करोड़ रुपए से भी ज्यादा बर्बाद हो गए. पहलगाम पर आतंकी हमला, उसके जवाब में ऑपरेशन सिंदूर, डोनाल्ड ट्रम्प का संघर्ष विराम का श्रेय लेने का अंतहीन राग तथा अमेरिका द्वारा छेड़े गए टैरिफ युद्ध जैसी जटिल चुनौतियों के साये में हुए मानसून सत्र में संसद का भी देश हित से विमुख होकर दलगत राजनीति का बंधक बन जाना देश के प्रति ही अपराध माना जाएगा.
अपेक्षा थी कि संसद अपनी संवैधानिक भूमिका का निर्वाह करते हुए तमाम मुद्दों पर गंभीर चर्चा से देश की सुरक्षा तथा विदेश नीति का मार्गदर्शन करेगी, लेकिन पूरा सत्र दलगत राजनीति से प्रेरित आरोप-प्रत्यारोप और हंगामे की भेंट चढ़ गया. माना जाता है कि हंगामा अक्सर विपक्ष करता है, लेकिन काम से ज्यादा हंगामा की बढ़ती प्रवृत्ति के लिए किसी एक पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.
जटिल मुद्दों पर दलगत राजनीति से परे सहमति और समन्वय की जरूरत होती है, पर अब तो दलगत राजनीति, निजी रंजिश में तब्दील हो गई नजर आती है. नतीजतन विपक्ष को निर्वाचित सरकार के बजाय तानाशाह नजर आती है तो सत्तापक्ष को विपक्ष देशविरोधी. इस चश्मे की अपनी सीमाएं हैं, जो लगातार उजागर हो रही हैं-और उसकी कीमत देश चुका रहा है.
काम के बजाय हंगामा ज्यादा करने की प्रवृत्ति की बात अतिरंजना हरगिज भी नहीं है. इस साल के बजट सत्र को अपवाद मान लें तो पिछले साल शीतकालीन सत्र में भी हमारे माननीय काम से ज्यादा हंगामा करते नजर आए थे. 21 दिन चला शीत सत्र राजनीतिक गर्मी की भेंट चढ़ गया था. सत्र में कुल 20 बैठकें हुईं. दोनों सदनों की कार्यवाही लगभग 105 घंटे चली. लोकसभा की उत्पादकता 54 प्रतिशत, जबकि राज्यसभा की उत्पादकता 41 प्रतिशत रही. यह तो आंकड़े भर हैं, वास्तव में सत्र के दौरान अधिकांश समय दोनों ही सदन दलगत राजनीति का अखाड़ा बने नजर आए.