‘भारत-अमेरिका कृषि व्यापार : अवसर, जोखिम और संतुलन की चुनौती
-अरुण कु मार डनायक-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
हरित क्रांति के दौर में इंदिरा गांधी के दूरदर्शी निर्णय, कृषि मंत्री सी. सुब्रह्मण्यम का सतत कार्यकाल और स्वामीनाथन जैसे प्रख्यात कृषि वैज्ञानिकों की सूझबूझ भरी सलाह के आधार पर अमेरिका के साथ हुई वार्ताएं, आज के भारत-अमेरिका कृषि व्यापार गतिरोध को समझने और सुलझाने के लिए ऐतिहासिक संदर्भ के साथ आंशिक मार्गदर्शन प्रदान कर सकती हैं।
भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक संबंध लगातार व्यापक होने की संभावनाओं के बीच कृषि क्षेत्र इस साझेदारी का सबसे संवेदनशील और विवादास्पद हिस्सा बना हुआ है। अमेरिका लंबे समय से भारतीय कृषि बाजार में प्रवेश का दबाव बना रहा है, लेकिन भारत ने राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कारणों से अब तक इसे बड़े पैमाने पर विदेशी आयात से सुरक्षित रखा है। छोटे और सीमांत किसान, पारंपरिक पारिवारिक खेती के साथ, भारतीय कृषि की रीढ़ हैं। भारत के कृषि क्षेत्र का महत्व केवल आर्थिक नहीं हैं, बल्कि यह 70 करोड़ से अधिक भारतीय नागरिकों के लिए आजीविका की वास्तविकताओं, अनिश्चितताओं के दौर में एक सहारा होने के साथ-साथ घरेलू राजनीतिक प्राथमिकताओं से भी जुड़ा हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था की आधारस्तंभ कृषि हिस्सेदारी (2022-23) में सकल मूल्य वर्धन का 18.4 फीसदी है। यही कारण है कि राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील इस क्षेत्र में समझौते की बहुत कम गुंजाइश रहती है।
वर्ष 2024 में भारत ने अमेरिका से 1.6 अरब डॉलर के कृषि उत्पाद बादाम, पिस्ता, एथेनॉल, मक्का, कुछ प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ, अन्य पशु आहार सामग्री आदि आयात किए। इसी कालावधि में भारत ने अमेरिका को 45.7 अरब डॉलर मूल्य के कृषि उत्पाद जैसे चाय, कॉफी और मसाले, बासमती चावल, प्रसंस्कृत फल-सब्जियां, ऑर्गेनिक तथा समुद्री खाद्य उत्पाद, तिलहन और दलहन निर्यात किये। कृषि क्षेत्र में भारत का व्यापार संतुलन अधिशेष में है।
डोनाल्ड ट्रम्प के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद भारत सहित अनेक विकासशील देशों के प्रति अमेरिका का दृष्टिकोण बदला है और वह तरह-तरह के आर्थिक दबाव इन देशों पर डाल रहा है। राष्ट्रपति ट्रम्प का कहना है कि भारत के कृषि आयात पर औसत शुल्क 39फीसदी है, जबकि अमेरिका में यह औसतन 5 फीसदी है। अमेरिका का तर्क है कि इन ऊंचे शुल्क और गैर-शुल्क बाधाओं (जैसे स्वच्छता व पौध-स्वास्थ्य मानक) से अमेरिकी उत्पादों को अनुचित रूप से रोका जाता है।
भारत ने आरंभ से ही अमेरिकी प्रशासन के साथ कूटनीतिक स्तर पर संवाद को प्राथमिकता दी और उसके आरोपों का संयमित व संतुलित उत्तर दिया। किंतु जब कृषि क्षेत्र से जुड़े मुद्दों पर वार्ता का गतिरोध समाप्त नहीं हो सका, तब घरेलू राजनीतिक परिस्थितियों और नीतिगत सिद्धांतों के मद्देनज़र भारत ने स्पष्ट कर दिया कि अपने कृषि क्षेत्र की सुरक्षा एक ऐसा राष्ट्रीय संकल्प है, जिस पर कोई समझौता संभव नहीं।
भारत का मानना है कि कृषि क्षेत्र खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण रोजगार के लिए अत्यंत संवेदनशील है, इसलिए इसे विदेशी आयात से सुरक्षा मिलनी चाहिए। अमेरिका जैसे देशों की कृषि भारी सब्सिडी पर आधारित है-जिससे उनका उत्पादन लागत कृत्रिम रूप से कम होता है और वे सस्ते में निर्यात कर सकते हैं। भारत के विश्व व्यापार संगठन दायित्व उसे संवेदनशील क्षेत्रों में संरक्षण की अनुमति देते हैं, भारत अचानक आयात बढ़ने या कीमत गिरने पर शुल्क बढ़ा सकता है और भारत मौजूदा शुल्क इन्हीं सीमाओं के भीतर रखता है।
इस समझौते के हो जाने के अनेक संभावित नुकसान हैं। भारत सरकार के नीति निर्माताओं का सोचना है कि अमेरिका के दबाव के चलते भारत सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य, अनुदान और सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसे नीतिगत मामलों में कठोर व अलोकप्रिय फैसले लेने पड़ सकते हैं। कृषि विशेषज्ञों व किसान नेताओं का मानना है कि सस्ते अमेरिकी आयात घरेलू बाजार में दाम गिरा सकते हैं। किसानों की आय में कमी के कारण छोटे और सीमांत किसान सबसे अधिक प्रभावित होंगे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबदबा बढ़ने से स्थानीय व्यापारी और किसान बाजार से बाहर हो सकते हैं। इन प्रत्यक्ष प्रभावों के अलावा गैर-शुल्क बाधाएं और उनके व्यापक प्रतिकूल असर से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। यह भावना सभी राजनीतिक दलों में समान रूप से गहराई से व्याप्त है, जिसके कारण किसी भी सरकार के लिए अपने रुख में बड़ा बदलाव करना राजनीतिक रूप से अत्यंत जोखिमपूर्ण और महंगा साबित हो सकता है।
ऐसा नहीं है कि भारत-अमेरिका कृषि व्यापार होने पर केवल नुकसान ही है। यदि दोनों देशों में समझौता हो जाता है तो इसके अनेक संभावित फायदे भी हैं। इसके फलस्वरूप निर्यात अवसरों में वृद्धि होगी, अमेरिका में भारतीय चाय, मसाले, समुद्री उत्पाद और ऑर्गेनिक फूड की मांग बढ़ सकती है। तकनीकी सहयोग बढ़ेगा और आधुनिक मशीनरी, सिंचाई तकनीक, ड्रोन और सटीक कृषि पद्धतियों तक भारत की पहुंच मजबूत होगी। कोल्ड स्टोरेज, प्रोसेसिंग और लॉजिस्टिक्स क्षेत्र में अमेरिकी निवेश से ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार सृजन होगा। भारतीय नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण व पोषक तत्वों से भरपूर कृषि उत्पाद उपलब्ध होंगे, उच्च मूल्य वाली एवं निर्यातोन्मुख फसलों की खेती को नया प्रोत्साहन मिलेगा, और अमेरिकी मानकों के अनुरूप उत्पादन से वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारत को निर्णायक बढ़त हासिल होने की प्रबल संभावना बनेगी।
हरित क्रांति के दौर में इंदिरा गांधी के दूरदर्शी निर्णय, कृषि मंत्री सी. सुब्रह्मण्यम का सतत कार्यकाल और स्वामीनाथन जैसे प्रख्यात कृषि वैज्ञानिकों की सूझबूझ भरी सलाह के आधार पर अमेरिका के साथ हुई वार्ताएं, आज के भारत-अमेरिका कृषि व्यापार गतिरोध को समझने और सुलझाने के लिए ऐतिहासिक संदर्भ के साथ आंशिक मार्गदर्शन प्रदान कर सकती हैं। तब सरकार ने अमेरिकी शर्तें स्वीकार तो कीं, किंतु अंतिम लक्ष्य कृषि आत्मनिर्भरता को ही बनाया। इसी संकल्प का परिणाम था हरित क्रांति, जिसने गेहूं और चावल की उत्पादकता में अभूतपूर्व वृद्धि की और देश को खाद्यान्न संकट से उबार दिया। मोदी सरकार चाहे तो वाजपेयी सरकार की पूंजी निवेश सह अनुदान आधारित ग्रामीण भंडार योजना, मनमोहन सरकार की कृषि ऋण विस्तार व ऋण माफी नीतियों और राष्ट्रीयकृत बैंकों के कृषि निवेश ऋ ण में योगदान जैसे उपायों से प्रेरणा लेकर कृषि सुधार कर सकती है।
भारत और अमेरिका के कृषि समझौते में आर्थिक अवसर और तकनीकी सहयोग हैं, पर बड़े जोखिम भी जुड़े हैं। भारत को किसानों की आय और खाद्य सुरक्षा का संरक्षण करते हुए अमेरिकी सब्सिडी वाले उत्पादों के मुकाबले घरेलू किसानों को सुरक्षा देनी होगी। विदेश व्यापार बढ़े, साथ ही घरेलू कीमतें स्थिर रहें। भारत सरकार को इस संतुलन को सावधानी से बनाए रखने की कोशिश करना चाहिए, क्योंकि दीर्घकालिक रूप में विवेकपूर्ण नीति ही वैश्विक प्रतिस्पर्धा और ग्रामीण स्थिरता दोनों सुनिश्चित कर सकती है।