राहत में सियासत नहीं
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
राहत में सियासत की स्थिति पैदा नहीं होनी चाहिए, लेकिन हिमाचली वजूद के प्रश्न अब तारों की छांव में नहीं, सिर्फ राजनीति के गलियारों में ही साबित होने लगे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को लगता है कि सराज, करसोग व नाचन के जख्मों की अनदेखी हो रही है। जाहिर है जख्मों के जरिए न तो नमक हलाली खोजी जानी चाहिए और न ही इन्हें राजनीति के तराजू में तोला जाना चाहिए। पूर्व मुख्यमंत्री के आरोपों की बुनियाद में भले ही उनकी विधानसभा के आंसू समाहित हैं, लेकिन यह वक्त साझी विरासत की किश्तियों का है। बाढ़ कोई खिलौना नहीं और न ही आपदा किसी वैमनस्य की गवाही हो सकती है। यह विडंबना है कि आपदा के बावजूद जयराम बनाम जगत सिंह नेगी होने लगा। वजूद में आपदा लिए हम हिमाचल के प्रति लापरवाह तो कहे जाएंगे। आपदा आई कैसे और जाएगी कैसे, इस प्रश्न की पूर्णता में पूरा हिमाचल जोखिम से भरा है। आपदा में राहत के संदेश और सरकार के आदेशों से इतर भी समाज ने अपने हाथ बढ़ाए हैं। यही वजह है कि प्रशासन को कहना पड़ा कि अब मदद की पहुंच में किस-किस वस्तु की जरूरत है। मदद का कारवां सिर्फ मदद नहीं, यह राहत का आश्वासन है जिसे सामूहिकता से पूरा करना होगा, लेकिन विडंबना यह कि अब बयानों की चरागाह में भटकने लगा हिमाचल। बाढग़्रस्त इलाकों में सत्ता और विपक्ष के अलावा पूरे हिमाचल के सरोकार अगर पहुंचे हैं, तो प्रभावित लोग गवाह हैं कि तिनके को तिनके का सहारा क्या होगा। बेशक हिमाचल को अपने सीमित संसाधनों से अधिकतम व्यय बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में करना होगा, लेकिन यहां राष्ट्र और हिमाचल के बीच फासलों का भी जिक्र होगा। जिक्र होगा केंद्र की भूमिका का, उन अर्जियों का संदर्भ होगा जो दो साल पहले की दर्द को समेटे दिल्ली की ठोकरों में अपनी संवेदना का जिक्र कर रही थीं। राजनीति अगर सराज बनाम शिमला है, तो शिमला बनाम दिल्ली भी है।
हमारी पैरवी राष्ट्रीय आपदा के मानदंडों से है या आपदा के बीच सियासत को घसीटने की है। ईमानदारी से होना तो यह चाहिए कि पूरा हिमाचल केंद्र से अपने हिस्से की राहत मांगे। दिल्ली के दिल में हिमाचल के सात सांसदों का दिल एक साथ धडक़े, तो एकमुश्त किस्त तमाम बाढग़्रस्त इलाकों के राहत शिविर तक पहुंच जाएगी। बेशक हिमाचल में विकास के साथ जुड़ रहा विनाश काफी हद तक राजनीतिक या राजनीतिक प्राथमिकताओं की वजह से भी है। हमारे विकास का मॉडल क्यों फेल हो रहा है, इसको लेकर भी तो थोड़ी सी राजनीति हो जाए। क्यों आज तक हिमाचल के नेता टीसीपी कानून की हड्डियां तोड़ते रहे। अतिक्रमणकारी लोगों को प्रकृति से छेड़छाड़ करने की मोहलत देते रहे। जल, जंगल और जमीन को लेकर हमने कौनसी नीतियां बनाईं। राजनीति का चरित्र और हर सत्तारूढ़ दल का आचरण एक ही जैसा साबित हुआ। साबित हुआ कि जिसकी चली या जो सत्ता का प्रभावशाली चेहरा था, उसने प्रगति के नाम पर कंक्रीट के जंगल में ऐसे विकास को उगा दिया, जो आज विनाश का सियापा कर रहा है। हम पहाड़ को अनुशासित होने के बजाय राजनीतिक प्राथमिकताओं की चरागाह बना रहे हैं। ऐसी हजारों सरकारी इमारतें हैं, जिन्होंने विध्वंस का काम किया है। सारे राजनेता और जनप्रतिनिधि सोचें कि उनके हलके में कितनी जेसीबी मशीनें, कितने क्रशर और जमीन की खरीद-फरोख्त के सौदागर बढ़ गए। हम जरूरतों के हिमाचल नहीं, हम छीना-झपटी के हिमाचल हैं। ऐसे में क्या आपदा राहत में भी छीना-झपटी होगी। क्या हमारे रहम में भी ईमानदारी नहीं। अगर हिमाचल की जनता किसी न किसी रूप में चंदा इकट्ठा करके राहत की सांसें बटोर सकती है, तो राज्य के सारे नेक रास्ते खुलने चाहिएं। आपदा में लांछनों की आपदा अगर आमंत्रित कर ली, तो हम एक राज्य नहीं, सिर्फ राजनीतिक स्वार्थ या राजनेताओं के टीले ही बन जाएंगे। ये गलत परंपरा होगी, कहीं तो हम सियासत से हटकर इस दुख-दर्द में जीने और भविष्य संरक्षण का ईमानदार एहसास बनें।