बिहार चुनाव : मतदाता सूची पर सवाल, राजनीतिक दलों का बवाल
-प्रदीप कुमार वर्मा-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 से पहले “स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन” को लेकर मचे बवाल पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने से इनकार कर दिया है। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए अपनी टिप्पणी में कहा कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और सुप्रीम कोर्ट भी एक संवैधानिक संस्था होने के नाते दूसरी संवैधानिक संस्था के कामकाज पर दखल नहीं देना चाहती। सुप्रीम कोर्ट के इस इनकार के बाद विपक्ष को इंटर्नशिप रिवीजन पर रोक लगाने की कवायद धक्का लगा है। वहीं, बिहार की सत्ता पर काबिज एनडीए गठबंधन के दलों ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का स्वागत करते हुए शुद्ध एवं अपडेट मतदाता सूची बनाने के लिए इसे एक सराहनीय कदम करार दिया है।
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए किसी भी चुनाव से पहले मतदाता सूची को अपडेट किया जाता है, जो एक सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन चुनाव आयोग ने इस बार एक जुलाई से मतदाता सूची की विशेष गहन समीक्षा शुरू कर दी है। इसे लेकर विपक्ष सवाल उठा रहा है। चुनाव आयोग की दलील है कि बिहार में मतदाता सूची की गंभीर समीक्षा की ऐसी आख़िरी प्रक्रिया 2003 में हुई थी और उसके बाद से नहीं हुई है। इसलिए ये मुहिम ज़रूरी है। मतदाता सूची की गहन समीक्षा के लिए चुनाव आयोग ने मतदाताओं के लिए एक फॉर्म तैयार किया है, जो मतदाता 1 जनवरी, 2003 की मतदाता सूची में शामिल थे, उन्हें सिर्फ़ यह गणना पत्र भरकर जमा करना है। उन्हें कोई सबूत नहीं देना होगा।
बिहार में ऐसे करीब 4.96 करोड़ मतदाता हैं। चुनाव आयोग ने 2003 की ये वोटर लिस्ट अपनी वेबसाइट पर डाल दी है। बिहार चुनाव से पूर्व मतदाता सूची की गहन समीक्षा की कवायद में यह सारा हंगामा 2003 के बाद मतदाता बने लोगों से सबूत मांगने को लेकर है। चुनाव आयोग के मुताबिक 1 जुलाई 1987 से पहले पैदा हुए नागरिकों जो 2003 की मतदाता सूची में नहीं थे, उन्हें अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान का सबूत देना होगा। ऐसे सभी मतदाता आज की तारीख़ में 38 साल या उससे बड़े होंगे। जो लोग 1 जुलाई 1987 से लेकर 2 दिसंबर 2004 के बीच पैदा हुए हैं, उन्हें अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान और अपने माता-पिता में से किसी एक की जन्मतिथि और जन्मस्थान का सबूत देना होगा।
ये सभी लोग क़रीब आज 21 से 38 साल के बीच के होंगे। इसके अलावा 2 दिसंबर 2004 के बाद पैदा हुए नागरिकों को अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान और अपने माता-पिता दोनों की ही जन्मतिथि और जन्मस्थान का भी सबूत देना होगा। बस इन ही सबूतों की मांग को लेकर सारा विवाद खड़ा हो गया है कि इतनी जल्दी ये सबूत कहां से लेकर आएं? चुनाव आयोग के मुताबिक 2003 के बाद बीते 22 साल में तेज़ी से शहरीकरण हुआ है यानी गांवों से लोग शहरों में गए हैं। जैसे लोगों का पलायन एवं प्रवास काफ़ी तेज़ हुआ है। इस पूरी कवायद में बिहार के लोग दूसरे राज्यों गए हैं, दूसरे राज्यों के लोग बिहार आए हैं। इसके साथ ही कई नागरिक 18 साल पूरा करने के बाद नए मतदाता बने हैं।
वहीं, कई मतदाताओं की मृत्यु की जानकारी अपडेट नहीं हुई है। सबसे अहम मतदाता सूची में दूसरे देशों से आए अवैध अप्रवासियों को भी अलग किया जाना ज़रूरी है। यही वजह है कि चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूचियां का गहन रिवीजन का काम किया जा रहा है। मतदाता सूचियां के गहन रिवीजन के इतिहास पर गौर करें, तो इससे पूर्व तत्कालीन मुख्यमंत्री राबडी देवी के शासनकाल में भी मतदाता सूचियां का गहन रिवीजन किया गया था और तब यह काम मैच 31 दिन में पूरा किया गया था। उसे दौरान चुनाव आयोग ने मात्र तीन दस्तावेजों की बाध्यता की थी बदले हुए प्रवेश में चुनाव आयोग द्वारा किए जा रहे मतदाता सूचियां के गहन रिवीजन के काम में चुनाव आयोग ने इस डरे को बढ़ाते हुए 11 दस्तावेज मांगे हैं।
चुनाव आयोग द्वारा मांगे जा रहे दस्तावेजों में जन्म प्रमाण पत्र, पासपोर्ट, हाईस्कूल सर्टिफिकेट, स्थायी निवास प्रमाण पत्र, वन अधिकार प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र, एनआरसी में नाम, परिवार रजिस्टर, ज़मीन या आवास आवंटन पत्र, केंद्र या राज्य सरकार के कर्मचारी या पेंशनर का कोई आई कार्ड, सरकार या बैंक या पोस्ट ऑफ़िस या एलआईसी या सरकारी कंपनी का आई कार्ड या सर्टिफिकेट शामिल है। चुनाव आयोग के मुताबिक ये लिस्ट अंतिम नहीं है। यानी कुछ और दस्तावेज़ों को भी मान्यता दी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट में गुरुवार को इस मामले में सुनवाई होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनाव आयोग को आधार कार्ड, मनरेगा कार्ड एवं राशन कार्ड को इस सूची में शामिल करने का आग्रह किया है।
चुनाव आयोग के मुताबिक बूथ लेवल ऑफ़िसर 25 जुलाई तक घर-घर जाकर गणना पत्रों में ये ब्योरा जमा करेंगे। इसी क्रम में एक अगस्त को मतदाता सूची का ड्राफ्ट प्रकाशित किया जाएगा। अगर किसी को कोई आपत्ति है तो उन्हें दावों और ऐतराज के लिए एक सितंबर तक का समय मिलेगा। वहीं, 30 सितंबर को अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित की जाएगी। विपक्षी दलों का तर्क है कि ये सारा काम जल्दबाज़ी में हो रहा है, जिसकी वजह से लाखों सही मतदाता भी लिस्ट से बाहर हो जाएंगे जबकि 26 जुलाई तक अपने या अपने माता-पिता की जन्मतिथि या जन्मस्थान के सबूत जुटाना सभी लोगों के लिए संभव नहीं होगा। विपक्ष का ये भी तर्क है कि चुनाव आयोग इस बहाने बिहार में अघोषित तौर पर “एनआरसी” को लाने की कोशिश कर रहा है।
विपक्ष का यह भी आरोप है कि रिवीजन के तहत मतदाता सूची में संशोधन गरीब, दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों को मताधिकार से वंचित करने की साजिश है। जबकि चुनाव आयोग का दावा इसके उलट है। चुनाव आयोग ने आर्टिकल एसआईआर को लेकर विपक्ष के आरोपों के बीच चुनाव आयोग ने संविधान के अनुच्छेद 326 का हवाला देकर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है। चुनाव आयोग के मुताबिक अनुच्छेद 326 का मतलब वयस्क मताधिकार के आधार पर मतदाता पंजीकरण का प्रावधान है। आर्टिकल 326 भारत के संविधान का हिस्सा है। यह लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को वयस्क मताधिकार के आधार पर सुनिश्चित करता है। इसका मतलब है कि हर भारतीय नागरिक, जो 18 साल या उससे अधिक उम्र का हो, मतदाता के रूप में पंजीकरण कराने का हकदार है।
इस प्रकार यह अनुच्छेद सभी पात्र नागरिकों को निष्पक्ष और समान मतदान का अधिकार देता है। कुल मिलाकर इस साल के आखिर में “पाटलिपुत्र” की गद्दी पर राजतिलक के लिए बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव से पूर्व मतदाता सूची को लेकर सत्ताधारी एनडीए तथा विपक्षी गठबंधनों के बीच में सियासी जोर आजमाइश अपने चरम पर है। यह माना जा रहा है कि विधानसभा चुनाव का ऐलान होने तक यह ऐतिहासिक खींचतान आगे भी जारी रहेगी। बीते दिनों हुई घुसपैठ के चलते भी कोई विदेशी नागरिक चुनाव प्रक्रिया में भागीदार न बने, इसको लेकर भी चुनाव आयोग की यह कवायद सराहनीय मानी जा रही है क्योंकि यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है कि बिहार के चुनाव में सिर्फ “बिहारी” की ही भागीदारी हो और कोई “घुसपैठिया” भारत के लोकतंत्र में सेंध ना लगा पाए।