राजनैतिकशिक्षा

दिलचस्प और स्टाइलिश रहा महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार

-डॉ.मुकेश कबीर-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार समाप्त हो चुका है। इस बार चुनाव परिणाम को लेकर कोई भी निश्चित नहीं है। परिणाम क्या होगा यह तो तेईस तारीख को पता चल ही जाएगा लेकिन अभी चर्चा में है महाराष्ट्र का चुनाव प्रचार। महाराष्ट्र जैसा दिलचस्प चुनाव प्रचार पूरे देश में कहीं नहीं होता है, इसे निश्चित रूप से स्टाइलिश कैंपेन कहा जा सकता है।
महाराष्ट्र के चुनाव प्रचार की खासियत यह होती है कि यहां की जनता बहुत अनुशासित होती है और नेता बहुत सम्माननीय होते हैं, यहां नेताओं के प्रति गहरी निष्ठा होती है इसीलिए जब वो मंच पर आते हैं तो इतनी गर्मजोशी से उनका स्वागत और अभिनन्दन होता है जैसे देवराज इंद्र पधारे हों और नेताओं से जनता का एक दिली लगाव तो होता ही है साथ ही उनके रिश्ते बिल्कुल घर जैसे होते हैं इसीलिए संबोधन भी घरेलू होते हैं दादा, ताई, काका, और साहेब। नेता भी आपस में एक दूसरे का जिक्र इसी तरह के संबोधन से करते हैं फिर चाहे वो विरोधी पार्टी के नेता ही क्यों न हों। यहां सभी पार्टियां अजीत पवार का जिक्र करती हैं तो उनके नेता उनको अजीत दादा ही बोलते हैं, फिर चाहे अजीत दादा पर कोई आरोप ही क्यों न लगाना हो। इसी तरह की छोटी छोटी बातों से यहां के चुनाव प्रचार में एक घरेलू वातावरण बन जाता है जो देश में और कहीं देखने को नहीं मिलता। यहां का चुनावी वातावरण ऐसा होता है कि महिलाएं भी चुनावी सभा में स्वयं को सहज महसूस करती हैं। यही कारण है कि चुनावी सभाओं में जितनी संख्या में महिलाएं महाराष्ट्र में इकट्ठी होती हैं उतनी और किसी राज्य में नहीं, पूर्वोत्तर के राज्यों भी महिलाएं बहुत आती हैं लेकिन उसके कुछ अलग कारण हैं।
बात महाराष्ट्र की करें तो यहां की चुनावी सभाएं बहुत अनुशासित होती हैं और पंडाल का माहौल लगभग वैसा ही होता है जैसा उत्तर भारत में किसी सांस्कृतिक आयोजन का होता है। चुनावी भीड़ में महिलाओं के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होती और न ही किसी प्रकार के हुड़दंग की स्थिति निर्मित होती है। यहां सभी मराठी मानुष होते हैं जो मराठी अस्मिता का पूरा ध्यान रखते हैं।
अब यदि नेताओं की बात करें तो हर नेता का अपना स्टाइल होता है, अजीत पवार और राज ठाकरे का सेंस ऑफ ह्यूमर जबरजस्त होता है इनकी सभा एक कॉमेडी शो जैसी हो जाती है इसलिए इनकी सभाओं में भीड़ ज्यादा होती है और भीड़ सिर्फ इनके चुटकुले सुनने ही आती है। अजीत पवार विरोधाभासी नेता हैं उनकी निष्ठा किधर है यह क्लियर नहीं है लेकिन लोगों की नजर में वो पंवार साहेब के भतीजे हैं यही उनकी टीआरपी है और इसको कैसे भुनाया जाये यह अजीत दादा अच्छे से जानते हैं अजित दादा का दबदबा भी अच्छा है इसीलिए कोई लिबर्टी नहीं ले पाता, यहां तक कि सारे नेता उनको दादा ही कहते हैं फिर चाहे फडणवीस हों, नवाब मलिक हों या कोई और सभी अजीत दादा की पोजिशन का ध्यान रखकर बोलते हैं। अजीत दादा के भाषण भी रोचक होते हैं और कभी कभी बिलो द बेल्ट भी होते हैं लेकिन मराठी मानुष को सब चलता है इसीलिए पिछले चुनाव में उनका दिया गया डायलॉग बहुत चर्चित हुआ था जिसे सोशल मीडिया पर भी खूब उछाला गया और उसके कार्टून भी बनाए गए थे, अजीत दादा ने कहा था “यहां के डैम में पानी नहीं है तो मैं पेशाब से भर दूं क्या? अजीत दादा के इस डायलॉग से जहां उनके समर्थक बहुत रोमांचित हुए थे वहीं विरोधियों ने तीखी आलोचना की थी, और राज ठाकरे की पार्टी ने कार्टून बनाकर एक डैम का नाम ही “अजीत दादा मूत्रालय” दर्शा दिया था। अजीत दादा, भाषण के मामले में शरद पवार से अलग हैं। शरद पवार ज्यादातर काम की बातें ही करते हैं और जनता से घर के वरिष्ठ सदस्य की तरह बात व्यवहार करते हैं, यही उनकी ताकत भी है इसीलिए वे लोगों के पवार साहेब हैं, जिनका आधे महाराष्ट्र पर कब्जा है। उनकी राजनीति भाषण पर आधारित नहीं है बल्कि व्यक्तिगत संबंधों के दम पर वो पंवार साहेब बने हैं। महाराष्ट्र में साहेब बनना आसान नहीं है, वहां सिर्फ दो ही साहेब हुए हैं पंवार साहेब और बाला साहेब, और इन दोनो का ही पूरे महाराष्ट्र पर कब्जा रहा है, ये दो सम्राट की तरह छाए रहे लेकिन दोनों की शैली भिन्न है। बाला साहेब की बात सबसे अलग है क्योंकि उनमें बहुत से गुण थे, उनका व्यक्तिगत संपर्क तो मजबूत था ही उसके साथ उनके भाषण भी बहुत दमदार और रोमांचक होते थे, बाला साहेब की भाषा शैली इतनी अलग थी कि उनकी भाषा को लोगों ने अलग ही नाम दे दिया “ठाकरी भाषा” इस भाषा में असहनीय तीखेपन के साथ चुटकुले की मिठास भी होती थी और गालियों का नमक और साथ ही इतिहास, साहित्य और संस्कृति का ज्ञान भी इसलिए उनके जैसा नेता पूरे देश में कोई और नहीं था। उनकी इसी ठाकरी भाषा के सही उत्तराधिकारी बनकर उभरे हैं राज ठाकरे, जिनके भाषण में वे सभी तत्व हैं जो बाला साहेब में थे। उनका ह्यूमर भी कमाल का है इसीलिए राज के भाषण में तीखे प्रहार के साथ मजेदार जोक्स भी होते हैं और उनकी सभा एक अच्छा खासा कॉमेडी सर्कस होती है। राज भी बाला साहेब की तरह मिमिक्री करते हैं। वे सभी नेताओं की मिमिक्री इतनी परफेक्ट करते हैं कि एक बार शरद पंवार ने कहा था कि “राज यदि नेता नहीं होता तो फिल्मी हीरो जरूर होता”।
राज पूरी तरह बाला साहेब का प्रतिबिंब लगते हैं, बहुत डायनेमिक हैं और बुलंद आवाज़ है साथ ही तेवर भी वही हैं, राज की सभा में आधी भीड़ तो इसलिए भी होती है कि लोगों को उनमें बाला साहेब स्पष्ट नज़र आते हैं। राज की सभा में महिलाएं बहुत बड़ी संख्या में आती हैं, देश में किसी भी नेता की सभा में इतनी महिलाएं नहीं आतीं इसका कारण है कि वे यहां सुरक्षित महसूस करती हैं। राज भी सभा में कोई भी बदसलूकी नहीं कर सकता खासकर महिलाओं के साथ, ऐसा ही प्रभाव बाला साहेब का हुआ करता था। राज में पूरे बाला साहेब उतर जाते है, किसी नेता की इतनी परफेक्ट कॉपी कहीं और देखने को नहीं मिली। किसी पिता पुत्र में भी इतनी समानता देखने को नहीं मिलती, यहां तक कि बाला साहेब के किसी भी पुत्र में उनकी ऐसी झलक दिखाई नहीं देती, उनके खुद के द्वारा बनाए गए राजनीतिक उत्तराधिकारी उद्धव भी बाला साहेब जैसे नहीं लगते, उद्धव की शैली अलग है, हालांकि राजनीति में मौलिक शैली ही बेहतर मानी जाती है, उद्धव की शैली भी मौलिक है लेकिन लोग उनमें बाला साहेब देखना चाहते हैं इसलिए उद्धव ने अपने स्वभाव के विपरीत थोड़ा तीखापन लाने की कोशिश की है, और काफी हद तक सफल भी हुए हैं, इसका सबूत है उनकी सभाओं में उमड़ने वाली भीड़। राज के बाद किसी की सभा से सबसे ज्यादा भीड़ आ रही है तो वो उद्धव की सभा हैं। हालांकि उद्धव की सभा इसलिए उल्लेखनीय है क्योंकि उनकी सभा में जो भीड़ आ रही है वो इंटीरियर इलाकों में आ रही है जबकि राज मुंबई में भीड़ जुटाते हैं, मुंबई में भीड़ जुटाना इतना कठिन नहीं है जितना इंटीरियर में। उद्धव के भाषण अब बेहतर हो गए हैं, अब वो भी तीखी और मीठी मिक्स भाषा बोलते हैं, यही ठाकरी भाषा कहलाती है। ठाकरी भाषा के दो प्रतिनिधि और हैं एक संजय राउत जो रोज टीवी पर बोलते हैं और दूसरे आदित्य ठाकरे जो टीवी पर तो बोलते ही हैं और सभाओं में भी खूब बोलते हैं। खास बात यह है कि आदित्य ने खुद को शिवसेना का अगला उत्तराधिकारी साबित कर भी दिया है, आदित्य भी अन्य ठाकरे की तरह इंटेलिजेंट और नॉलेजेबल हैं साथ भी उनमें बाला साहेब के तेवर और उद्धव की विनम्रता का मिश्रण है। राजनीति में सबसे ज्यादा सफल ऐसे नेता ही होते है इसीलिए आदित्य का भविष्य उज्जवल दिखाई देता है। हालांकि शुरुआत में आदित्य को शिवसेना का पप्पू भी कहा गया था लेकिन आदित्य ने अपनी मेहनत और काबिलियत से एक मैच्योर्ड नेता की इमेज बना ली है, इसकी झलक उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी देखी जा सकती है, आदित्य को देखकर शिवसेना का भविष्य सुरक्षित लगने लगा है लेकिन फिलहाल उनकी शिवसेना की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उनकी टक्कर सीधे सीधे केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों से है और मोदी जी जैसे पॉपुलर प्रधानमंत्री के होते हुए उद्धव सेना की जीत आसान नहीं होगी इसलिए शिवसेना फिलहाल तो उतनी सशक्त नहीं होगी जितनी बाला साहेब के वक्त थी लेकिन भारत की राजनीति के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। हमारी राजनीति दलबदलू नेताओं का स्वर्ग है इसलिए भविष्य में क्या होगा यह वक्त आने पर ही पता चलेगा, ऊंट किस करवट बैठेगा यह तो एक्सपर्ट जानते हैं लेकिन अभी तो चुनाव प्रचार गर्मागर्म रहा, बिल्कुल चना जोर गरम की तरह, बस इसका मजा लीजिए, जनतंत्र में जन के हाथ में बस यही काम होता है, सभा में ताली बजाने का अधिकार तो हमारा ही है, इसे कोई सरकार नहीं छीन सकती तो तेईस तारीख तक इंतजार कीजिए तब तक जय हिंद, जय महाराष्ट्र।

 

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