पहलवानों का राजनीतिक कदम
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
देश के प्रख्यात, चैम्पियन पहलवानों-बजरंग पूनिया और विनेश फोगाट-ने अचानक ही कांग्रेस का ‘हाथ’ नहीं थामा है। कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह, बेशक, उन्हें ‘खलनायक’ करार दें अथवा युवा-नाबालिग पहलवान बेटियों के यौन उत्पीडऩ के खिलाफ उनके आंदोलन को ‘कांग्रेसी साजिश’ कहें, लेकिन दोनों ही पहलवान, अपने-अपने वर्गों में, अद्वितीय रहे और उन्हें भारत की आन-बान-शान माना गया। प्रधानमंत्री मोदी ने निजी स्तर पर उनसे मुलाकातें कीं और सहयोग का हर हाथ बढ़ाया। बेशक कांग्रेस के साथ जुडऩा और कांग्रेस की ही राजनीति करना विनेश और बजरंग का संवैधानिक अधिकार है। वे विधायक बनें, मंत्री बनें या राष्ट्रीय स्तर पर कोई भूमिका निभाएं, लेकिन भारतीय कुश्ती को अभी उनकी जरूरत थी। उनमें ‘पहलवानी’ शेष थी। कुश्ती के प्रति ही जुड़ाव रहना चाहिए था। विनेश ने कहा भी था कि वह 32-33 साल की उम्र तक कुश्ती लडऩा चाहती हैं। अर्थात चार साल बाद का ओलंपिक उनके मानस में था। लिहाजा पाला बदल कर राजनीति में उतरना एक ‘नैतिक विकृति’ है। असंख्य चैम्पियन खिलाड़ी राजनीतिज्ञ बने हैं, लेकिन आज वे सिर्फ नेता हैं। उनका खिलाड़ी का चेहरा गायब हो चुका है। अतीत के इतिहास को कौन खंगालता है?
बहरहाल जंतर-मंतर पर हमने चैम्पियन पहलवानों के आंदोलन को करीब से देखा है। बेशक उसे ‘खिलाडिय़ों का आंदोलन’ घोषित किया जाता रहा और वामपंथी नेता वृंदा करात को मंच से उतरने को बाध्य किया गया, लेकिन कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी के साथ विनेश, साक्षी मलिक, बजरंग आदि इस तरह बतियाते नजर आए मानो सहेलियां गप्पें मार रही हों! आंदोलन के मंच तक राहुल गांधी और दीपेंद्र हुड्डा सरीखे कांग्रेसी सांसदों को प्रवेश क्यों दिया गया? क्या वे राजनेता नहीं थे। यकीनन कुछ ‘खिचड़ी’ तो पक रही थी! यदि सोच और विचारधारा के स्तर पर दोनों पहलवान ‘कांग्रेसी’ रहे हैं, तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। यह भी उनका मौलिक अधिकार है। देश में बीते 10 सालों से प्रधानमंत्री मोदी की सरकार सक्रिय है, लिहाजा दोनों पहलवानों को वल्र्ड चैम्पियनशिप, राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलों में शिरकत करने की अनुमति और आर्थिक मदद किसने दी थी? विनेश के लिए हंगरी के विश्व विख्यात कोच के साथ अनुबंध किसने किया था और करोड़ों की फीस अदा की गई? हम मानते हैं कि यह सरकार का दायित्व था, लेकिन यह दायित्व तो देश के 145 करोड़ भारतीयों और प्रत्येक खिलाड़ी के प्रति भी था। कितनों को इतनी प्राथमिकताएं दी गईं या मिल पाती हैं? बहरहाल कुश्ती को यहीं छोड़ते हैं, लेकिन आंदोलन तो अधर में लटक जाएगा। जिस आंदोलन की खातिर विनेश ने सडक़ पर, पुलिसियों द्वारा घसीटा जाना झेल लिया, सरकार के कथित अन्याय को बर्दाश्त किया, क्योंकि सरकार अपने सांसद को बचाती रही, हमें लगता है कि विनेश भी उस आंदोलन को कभी भूल नहीं पाएंगी।
अभी तो बजरंग और विनेश नए-नए नेता बने हैं, लिहाजा लच्छेदार भाषा बोल रहे हैं कि वे हर पीडि़त, शोषित खिलाड़ी बेटी के संग खड़े रहेंगे। उनकी मदद करेंगे, लेकिन यह हकीकत नहीं होगी और कुछ ही महीनों में यथार्थ सामने होगा! अब अकेली साक्षी मलिक ने आंदोलन को जारी रखने का आश्वासन देश को दिया है। देखते हैं, वह कहां तक चल पाती हैं। राजनीति में आने का ऑफर तो उन्हें भी मिला था। उन्होंने स्वीकार नहीं किया और वह आंदोलन के संकल्प पर अडिग रहीं। साक्षी भी ओलंपिक की कांस्य पदक विजेता पहलवान रही हैं। विनेश को तो अभी यह जीत हासिल करनी है। उनके साथ जो भी हुआ, वह किसी और की गलती नहीं थी। ऐसी खेल प्रतियोगिताओं में खिलाड़ी को अपना वजन तय सीमा से कम ही रखना होता है। बहरहाल जो भी हुआ, वह भारत के लिए दुस्वप्न जैसा था। बहरहाल ‘पहलवान से कांग्रेसी नेता’ बने विनेश-बजरंग के खिलाफ भाजपा समेत कुछ दलों ने ओछी फिकरेबाजी शुरू भी कर दी है। यही हमारी राजनीति के भद्दे संस्कार हैं। बेशक दोनों ही अब तक ‘देश के बेटा-बेटी’ रहे हैं, लेकिन अब कांग्रेस तक सिमट कर रह जाएंगे, लेकिन वे इस मुगालते में मत रहें कि कांग्रेस ही महिला-बेटी सुरक्षा की सबसे बड़ी पैरोकार और संरक्षक रही है। एक ही उदाहरण पर्याप्त है कि उसके नेता तो महिला को टुकड़ों में काट कर तंदूर के हवाले करने वाले रहे हैं। मौजूदा संदर्भ में प्रियंका चतुर्वेदी और राधिका खेड़ा की, कांग्रेस के भीतर, आपबीती को सुना या पढ़ा जा सकता है।